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समन्तभद्र-भारती
सदसद्वाद
(१) स्यात् सद्रूप ही तत्त्व है।' (२) स्यात् असद्रूप हो तत्त्व है। (३) स्यात् उभयरूप ही तत्त्व है। (४) स्यात् अनुभय ( अवक्तव्य ) रूप ही तत्त्व है। (५) स्यात् सद् और अवक्तव्यरूप ही तत्त्व है। (६) स्यात् असद् और अवक्तव्यरूप ही तत्त्व है ।
(७) स्यात् सद् और असद् तथा अवक्तव्य रूप ही तत्त्व है इस सप्तभङ्गोमें प्रथम भङ्ग स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको अपेक्षासे, द्वितीय परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको अपेक्षासे, तृतीय दोनोंकी सम्मिलित अपेक्षाओंसे, चतुर्थ दोनों ( सत्त्व-असत्त्व ) को एक साथ कह न सकनेसे, पंचम प्रथम-चतुर्थके संयोगसे, षष्ठ द्वितोय-चतुर्थके मेलसे और सप्तम तृतीय-चतुर्थके मिश्ररूपसे विवक्षित हैं और प्रत्येक भङ्गका प्रयोजन पृथक्पृथक् है । जैसा कि समन्तभद्रके निम्न प्रतिपादनसे प्रकट है :
सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते । क्रमार्पितद्वयाद् द्वैतं सहावाच्यमशक्तितः । अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ।। धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तधर्मिणः । अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदङ्गिता।
आप्तमो० का० १५, १६, २१ ।
१. कथंचित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ।।
आप्तमी० १४ । २. अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ।।
आप्तमो० १६ ।