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कारिका ११४ ]
देवागम प्रमाणोंसे भले प्रकार पुष्ट है, सर्वबाधाओंसे विवर्जित है, सबके हितरूप हैं और अन्य समस्त एकान्त-शासनोंके द्वारा अजेय हैकोई भी उसे जीत नहीं सकता-उन श्रीवीर भगवान्को मैं नतमस्तक होता हूँ।]
यद्भक्तिभाव-निरता मुनयोऽकलंकविद्यादिनन्द-जिनसेन-सुवादिराजाः। गायन्ति दिव्य-वचनैः सुयशांसि यस्य
भूयाच्छियै स युगवीर-समन्तभद्रः॥३॥ [जिनकी भक्तिमें लीन हुए अकलंकदेव, विद्यानन्दस्वामी, भगवज्जिनसेन और वादिराज प्रमुख जैसे. महामुनि अपने दिव्यवचनों-द्वारा जिनके सुयशोंका गान करते हैं वे युगवीर-इस युगके प्रधान पुरुष-श्री समन्तभद्र स्वामी हमारी श्री वृद्धिके लिए निमित्तभूत होवें उनके प्रसादसे अथवा प्रसन्नतापूर्वक आराधनसे हमें निजश्रीकी-आत्मीय लक्ष्मी-ज्योति, शोभा-प्रभा, सम्पत्तिविभूति, शक्ति-सरस्वती और सिद्धि-समृद्धिकी-अधिकाधिक प्राप्ति होवे।]
इति श्रीनिरवद्यस्याद्वादविद्याधिपति -सकलतार्किकचक्रचूडामणि-श्रद्धागुणज्ञतादिसातिशयगुणगणविभूषित-सिद्धसारस्वत-स्वामिसमन्तभद्राचार्यप्रणोतं सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तिरूपं देवागमाऽत्परनामाऽऽप्तमीमांसाशास्त्र युगवीर-जुगलकिशोर - मुख्तारविरचित-स्पष्टार्थादियुक्ताऽनुवादसमन्वितं
समाप्तम् ।
१. 'श्री' शब्द उन सभी अर्थों में प्रयुक्त होता है जिन्हें 'निजश्री' को व्याख्यामें
व्यक्त किया गया है और जो यहाँ विवक्षित हैं।