________________
११४
समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद १०
आप्त-मीमांसाका उद्देश्य इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् ।
सम्यग्मिथ्योपदेशार्थ-विशेष-प्रतिपत्तये ॥११४॥ 'इस प्रकार ( 'देवागम' नामके स्वोक्त दश-परिच्छेदात्मक शास्त्रमें ) यह आप्तमीमांसा-सर्वज्ञ-विशेष-परीक्षा-हित चाहने वालोंके–मुख्यतः मोक्ष और उसका कारण सम्यग्दर्शनादिरूप रत्नत्रयके अभिलाषी भव्यजीवोंके-सम्यक उपदेश और मिथ्या उपदेशके अर्थ-विशेषकी प्रतिपत्तिके लिये-उपादेय तथा हेयरूपसे श्रद्धान, ज्ञान और समाचरणकी प्राप्तिके लिए की गई है।'
इति देवागमाऽऽप्तमीमांसायां दशमः परिच्छेदः ।
अनुवादकोय-अन्त्य-मंगल यस्य सच्छासनं लोके स्याद्वादाऽमोघ-लाञ्छनम् । सर्वभूत-दयोपेतं दम-त्याग-समाधिभृत् ॥१॥ नय-प्रमाण-सम्पुष्टं सर्व-बाधा-विवर्जितं । सार्वमन्यैरजय्यं च तं वीरं प्रणिदध्महै ॥ २॥
[जिनका समीचीन शासन इस लोकमें स्याद्वादरूप प्रमोध लक्षणसे लक्षित है-सर्वथा एकान्तवादरूप न होकर अनेकान्तवादात्मक है, इसीसे कभी असफल न होनेवाला है—सर्वप्राणियोंकी दयासे युक्त है, इन्दिय-दमन परिग्रह-त्यजन और ध्यान-समाधिकी तत्परताको लिए तथा उनकी शिक्षाओंसे परिपूर्ण है, नयों तथा