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कारिका ११३ ]
देवागम
स्याद्वाद-संस्थिति
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विधेयमीप्सितार्थाङ्ग प्रतिषेध्याऽविरोधि यत् । तथैवाऽऽदेय - हेयत्वमिति स्याद्वाद - संस्थितिः ॥११३॥
' ( अस्ति इत्यादिरूप ) जो विधेय है - मनके अभिप्रायपूर्वक जिसका विधान किया जाता है, किसीके भयादिवश नहीं - और ईप्सित अर्थक्रियाका कारण है वह प्रतिषेध्यके नास्तित्वादिके -साथ अविरोधरूप है— जो नास्तित्वादिके साथ अविरोधरूप नहीं वह ईप्सित अर्थक्रियाका कारण भी नहीं हो सकता; क्योंकि विधि- प्रतिषेधके परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है, विधिके बिना प्रतिषेधका और प्रतिषेधके बिना विधिका अस्तित्व नहीं बनता । और जिस प्रकार विधेय प्रतिषेध्यका अविरोधी ईप्सित अर्थक्रियाका अंग- कारण सिद्ध है उसी प्रकार वस्तुका आदेयहेयपना है, अन्यथा नहीं; क्योंकि विधेयका एकान्त होनेपर किसीके हेयत्वका विरोध होता है; प्रतिषेध्यका एकान्त होनेपर किसीके आदेयत्वका विरोध होता है; स्याद्वादीके अभिप्रायानुसार सर्वथा विधेय ही प्रतिषेध्य नहीं होता; कथंचित् विधि प्रतिषेध्यके तादात्म्य माना गया है । अतः विधेय-प्रतिषेधात्मक विशेषके कारण सप्तभंगीके समाश्रयसे स्याद्वाद प्रक्रियमाण होता है । इस प्रकार स्याद्वादकी ( सर्वत्र युक्ति-शास्त्राऽविरोधके कारण ) यह सम्यक् स्थिति है । और इसलिये हे वीर भगवन् ! हमने जो यह निश्चय किया है कि 'युक्ति - शास्त्राऽविरोधिवाक्यके कारण आप ही निर्दोष आप्त है' वह अनवद्य है -- सर्वप्रकार से बाधा - रहित है ।'
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