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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद १० कथंचित् पापरूप आस्रव-बन्धके कारण हैं, संक्लेशके अंग होनेसे; कथंचित् पुण्य-पाप उभयरूप आस्रव-बन्धके कारण हैं, क्रमार्पित विशुद्धि-संक्लेशके अंग होनेसे; कथंचित् अवक्तव्यरूप है, सहार्पितविशुद्धि-संक्लेशके अंग होनेसे । और विशुद्धि-संक्लेशका अंग न होनेपर दोनों ही बन्धके कारण नहीं हैं। इस प्रकार नयविवक्षाको लिए हुए अनेकान्तमार्गसे ही पुण्य-पापकी व्यवस्था ठीक बैठती है-सर्वथा एकान्तपक्षका आश्रय लेनेसे नहीं। एकान्त पक्ष सदोष है; जैसाकि ऊपर बतलाया जा चुका है और इस लिये वह पुण्य-पापका सम्यक् व्यवस्थापक नहीं हो सकता।
इति देवागमाऽऽप्तमीमांसायां नवमः परिच्छेदः ।
दशम परिच्छेद
अज्ञानसे बन्धका और अल्पज्ञानसे मोक्षका एकान्त अज्ञानाच्चेद्धृवो बन्धो ज्ञेयाऽनन्त्यान केवली । ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्वेदज्ञानाद्बहुतोऽन्यथा ॥१६॥
'यदि ( सांख्यमतानुसार ) अज्ञानसे बन्धका होना अवश्यंभावी माना जाय तो ज्ञयोंकी अनन्तताके कारण कोई भी केवलीसकलविपर्यय-रहित तथा ज्ञानान्तरकी सहायता-रहित तत्त्वज्ञानरूप केवलसे युक्त-न हो सकेगा । यदि अल्पज्ञानसे मोक्षका होना माना जाय तो अज्ञानके बहुत होनेके कारण बन्धका प्रसंग बराबर उपस्थित रहेगा और उसका निरोध न हो सकनेसे मोक्षका होना नहीं बन सकेगा।'