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कारिका ९५ ]
देवागम सूत्रका कोई विरोध नहीं है । इसी तरह 'कायवाङ्मनःकर्मयोगः', ‘स आस्रवः', 'शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्य' इन तीन सूत्रोंके द्वारा शुभकायादि-व्यापारको पुण्यास्रवका और अशुभ-कायादि-व्यापारको पापास्रवका जो हेतु प्रतिपादित किया है वह कथन भी इसके विरुद्ध नहीं पड़ता; क्योंकि कायादि-योगके भी विशुद्धि और संक्लेशके कारण-कार्य-स्वभावके द्वारा संक्लेशत्व-विशुद्धित्वकी व्यवस्थिति है । संक्लेशके कारण-कार्य-स्वभाव ऊपर बतलाए जा चुके हैं । विशुद्धिके कारण सम्यग्दर्शनादिक हैं, धय॑ध्यान तथा शुक्लध्यान उसके स्वमाव है और विशुद्धिपरिणाम उसका कार्य है। ऐसी हालतमें स्व-पर-दुःखको हेतुभूत कायादि-क्रियाएँ यदि संक्लेश-कारण-कार्य-स्वभावको लिए हुए होती है तो वे संक्लेशाङ्गत्वके कारण, विषभक्षणादिरूप कायादिक्रियाओंकी तरह, प्राणियोंको अशुभफलदायक पुद्गलोंके सम्बन्धका कारण बनती हैं; और यदि विशुद्धि-कारण-कार्य-स्वभावको लिए हुए होती है तो विशुद्धयङ्गत्वके कारण, पथ्य आहारादिरूप कायादिक्रियाओंकी तरह, प्राणियोंके शुभफलदायक पुद्गलोंके सम्बन्धका कारण होती हैं। जो शुभफलदायक पुद्गल है वे पुण्यकर्म हैं, जो अशुभफलदायक पुद्गल हैं वे पापकर्म हैं, और इन पुण्य-पापकर्मोंके अनेक भेद हैं। इस प्रकार संक्षेपसे इस कारिकामें संपूर्ण शुभाऽशुभरूप पुण्यपाप-कर्मोके आस्रव-बन्धका कारण सूचित किया है। इससे पुण्य-पापकी व्यवस्था बतलानेके लिये यह कारिका कितनी रहस्यपूर्ण है, इसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं।
सारांश इस सब कथनका इतना ही है कि-सुख और दुःख दोनों ही, चाहे स्वस्थ हों या परस्थ-अपनेको हों या दूसरोंकोकथंचित् पुण्यरूप आस्रव-बन्धके कारण हैं, विशुद्धिके अंग होनेसे;