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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ९
जो निरवशेष- रागादिके अभावरूप होती है, उस विशुद्धिमें तो पुण्य-पाप-बन्धके लिये कोई स्थान नहीं है । और इस लिए विशुद्धिका आशय यहाँ आर्त रौद्रध्यान से रहित शुभपरिणतिका है । वह परिणति धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानके स्वभावको लिये हुए होती है । ऐसी परिणति होनेपर ही आत्मा स्वात्मामें — स्वस्वरूपमेंस्थितिको प्राप्त होता है, चाहे वह कितने ही अंशोंमें क्यों न हो । इसीसे अकलंकदेवने अपनी व्याख्या में, इस संक्लेशाभावरूप विशुद्धिको “आत्मनः स्वात्मन्यवस्थानम् " रूपसे उल्लिखित किया है और इससे यह नतीजा निकलता है कि उक्त पुण्य प्रसाधिका विशुद्धि आत्माके विकास में सहायक होती है, जब कि संक्लेशपरिणति में आत्माका विकास नहीं बन सकता - वह पाप-प्रसाधिका होनेसे आत्माके अधःपतनका कारण बनती है । इसी लिये पुण्यको प्रशस्त और पापको अप्रशस्त कर्म कहा गया है ।
विशुद्धिके कारण, विशुद्धिके कार्य और विशुद्धिके स्वभावको 'विशुद्धिअंग' कहते हैं । इसी तरह संक्लेशके कारण, संक्लेशके कार्य तथा संक्लेशके स्वभावको 'संक्लेशाङ्ग' कहते हैं । स्व-परस्थ सुखदुःख यदि विशुद्धिअंगको लिये हुए होता है तो वह पुण्य-रूप शुभबन्धका और संक्लेशाङ्कको लिए हुए होता है तो पाप-रूप अशुभबन्धका कारण होता है, अन्यथा नहीं । तत्त्वार्थ सूत्र में, "मिथ्यादर्शनाऽविरतप्रमादकषाययोगा बन्धहेतव:' इस सूत्रके द्वारा मिथ्यादर्शन, अविरति प्रमाद, कषाय- योगरूपसे बन्धके जिन कारणोंका निर्देश किया है वे सब संक्लेशपरिणाम ही हैं; क्योंकि आर्त-रौद्रध्यानरूप परिणामों के कारण होनेसे 'संक्लेशाङ्ग'में शामिल हैं; जैसे कि हिंसादि क्रिया संक्लेशकार्य होनेसे संक्लेशाङ्गमें गर्भित है । अतः स्वामी समन्तभद्रके इस कथन से उक्त
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