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कारिका ९५]
देवागम मान्यतामें दोष देखकर ) यदि दोनों सिद्धान्तोंके एकात्मरूप उभय एकान्तको माना जाय तो वह स्याद्वाद-न्यायसे द्वेष रखनेवालोंके विरोध-दोषके कारण नहीं बनता। अवाच्यताका एकान्त मानने में भी 'अवाच्य है' यह कहना युक्त नहीं ठहरता है। क्योंकि 'अवाच्य' शब्दके द्वारा वह 'वाच्य' हो जायगा और तब सर्वथा अवाच्यताका एकान्त नहीं रहेगा।
___पुण्य-पापकी निर्दोष व्यवस्था विशुद्धि-संक्लेशाङ्ग चेत् स्वपरस्थं सुखाऽसुखम् । पुण्य-पापास्रवौ युक्तौ न चेद्वयर्थस्तवाऽहंतः ॥९॥
'यदि स्व-परस्थ-अपना अथवा परका-सुख-दुःख विशुद्धि तथा संक्लेशका अंग है-तत्कारण-कार्य वा स्वभावरूप है तो वह सुख-दुःख यथा क्रम पुण्य-पापके आस्रव-बन्धका हेतु है और यदि विशुद्धि तथा संक्लेश दोनोंमेंसे किसीका भी अंग-कारण-कार्यस्वभावरूप-नहीं होता है तो ( हे अर्हन् भगवन् ! ) आपके मतमें वह व्यर्थ कहा है-उसका कोई फल नहीं। अन्यथा, पूर्वकारिका (६३) में कहे हुए 'अचेतनाऽकषायौ' और 'वीतरागो मुनिविद्वान्' पदोंमें जिनका उल्लेख है उनके भी बन्धका प्रसंग उपस्थित होगा।'
व्याख्या-यहाँ 'संक्लेश' का अभिप्राय आर्त-रौद्रध्यानके परिणामसे है-"आर्त-रौद्र-ध्यानपरिणामः संक्लेशः'' ऐसा अकलंकदेवने 'अष्टशती' टीकामें स्पष्ट लिखा है और श्रीविद्यानन्दने उसे 'अष्टसहस्री' में अपनाया है। 'संक्लेश' शब्दके साथ प्रतिपक्षरूपसे प्रयुक्त होनेके कारण 'विशुद्धि' शब्दका अभिप्राय 'संक्लेशाऽभाव' है ( "तदभावः विशुद्धिः” इत्यकलंकः )-उस क्षायिकलक्षणा तथा अविनश्वरी परमशुद्धिका अभिप्राय नहीं है