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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद ७ नहीं है, दृष्टान्त जो ‘हेतु-शब्दवत्' दिया गया है वह भी साधनविकल है, हेतु-शब्दके तदाकारज्ञानसे भिन्न दूसरे हेतु-शब्दका अभाव है। संज्ञाके अवभासनमें जो ज्ञान प्रवृत्त होता है उस संज्ञाभासज्ञानको हेतु माननेपर अर्थात् यह कहनेपर कि 'जीवशब्द सबाह्यार्थ है' संज्ञाभास ( शब्दाकार ) ज्ञानके होनेसे तो यह हेतु शब्दाभास ( शब्दाकार ) स्वप्नज्ञानके साथ व्यभिचारी है, जिसमें शब्दाकार ज्ञानके होते हुए भी बाह्यार्थका अभाव होता है' तो ऐसी शंका करनेवालोंके समाधानार्थ आचार्यश्री स्वामी सुमन्तभद्र कहते हैं-)
'वक्ताका ( अभिधेय-विषयक ) बोध ( जो वाक्यकी प्रवृत्तिमें कारण होता है ), श्रोताका वाक्य ( जो उसे अभिधेय-परिज्ञानके लिये सुननेको मिलता है) और प्रमाताका प्रमाण ( जो सुने हुए वाक्यके अर्थावबोधको लेकर वक्ताके अभिधेय-विषयमें योग्यअयोग्य अथवा सत्य-असत्यका निर्णय करता है ) ये तीनों एक दूसरेसे पृथक् जाने जाते हैं—भिन्न-भिन्न प्रतिभासित होते हैंऐसी स्थितिमें विज्ञानाद्वैतता बाधित ठहरती है, 'संज्ञात्वात्' हेतुके असिद्धताका दोष नहीं आता और न ‘हेतु-शब्दवत्' इस दृष्टान्तके साध्य-विकलताका प्रसंग ही उपस्थित होता है।
(इसपर यदि यह कहा जाय कि बाह्य अर्थका अभाव होनेसे वक्ता, श्रोता और प्रमाता ये तीनों बुद्धि (ज्ञान )से पृथक्भूत नहीं हैं; वक्तादिके आभास-आकाररूप परिणत हुई बुद्धिके ही वक्ता आदिका व्यवहार होता है, वाक्यके अवतारका भी बोध ( बुद्धि ) के बिना कहीं कोई अस्तित्व नहीं बनता और प्रमाण स्वयं बोधरूप है ही। अतः ( वक्तादित्रयके बुद्धिसे पृथग्भूत नं होनेके कारण ) उक्त हेतुके असिद्धतादि दोष बराबर घटित