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कारिका ८६]
देवागम होता है, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) रूपादिग्राहक वक्ता तथा श्रोताके, व्यक्तिरिक्त-विज्ञानसन्तान-कलापके और स्वांश ( ज्ञान )-मात्रावलम्बी प्रमाणके विभ्रमकी कल्पना किये जानेपर रूपादिको पूर्णतः असिद्धि होती है और उस असिद्धिसे अन्तर्जेय जो ज्ञानाद्वैत है उसकी मान्यता विरुद्ध पड़ती है-रूपादिककी, अभिधेयकी, ग्राहक वक्ता तथा श्रोताकी विभ्रमरूप कल्पना किये जानेपर व्यतिरिक्त-विज्ञानका जो सन्तानकलाप है वह स्वांशमात्रग्राही सिद्ध नहीं होता; क्योंकि स्वांशमात्रावलम्बी ज्ञानोंके परस्पर असंचार है-स्वरूपका गमकत्व नहीं बनता—जिससे अभिधान-ज्ञान और अभिधेय-ज्ञानका भेद होवे । स्वांशमात्रावलम्बी ज्ञानको भी यदि विभ्रम रूप माना जावे तो प्रमाणकी सिद्धि नहीं बनती; क्योंकि बौद्धोंके यहाँ अभ्रान्त ज्ञानको प्रमाण माना गया है । प्रमाणकी भी विभ्रमरूपसे कल्पना किये जानेपर अन्तर्जेय ( ज्ञानाद्वैत ) ही तत्त्व है यह अभ्युपगम कैसे विरुद्ध नहीं पड़ेगा ? प्रमाणान्तरसे अभ्युपगम माननेपर सभीके अपने इष्टके अभ्युपगमका प्रसंग उपस्थित होगा, उसमें बाधा नहीं दी जा सकेगी। प्रमाणके भ्रान्त होनेपर बाह्यार्थों, तादृश-अतादृशों, प्रमेयों, अन्तर्जेय-बहिर्जेयों, इष्टाऽनिष्टोंका विवेचन भी भ्रान्त ठहरेगा-स्वज्ञान-ग्राहककी अपेक्षासे अन्तर्जेय
और बहिर्जेय दोनों ही बाह्यार्थ हैं और वे ग्राहक-प्रमाणके भ्रान्त होनेसे विभ्रमरूप भ्रान्त ही ठहरते हैं, ऐसी स्थितिमें अन्तर्जेय ( ज्ञानाद्वैत )का एकान्त माननेपर हेयोपादेयका विवेक किस आधारपर बन सकता है ? नहीं बन सकता । और यदि प्रमाणको अभ्रान्त माना जाय तो बाह्यार्थको स्वीकार किया जाना चाहिये;
१. प्रत्यक्षं कल्पनापोढम्रान्तमिति वचनात् ।