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कारिका ८५,८६] देवागम
८३ शब्द ही सबाह्यार्थ प्रसिद्ध है—बुद्धि-पदार्थक तथा शब्द-पदार्थक नहीं, ऐसी स्थितिमें संज्ञापना हेतुके विपक्षमें भी व्यापनेसे व्यभिचार दोष आता है; क्योंकि संज्ञात्व-हेतुको बुद्धि, शब्द और अर्थादिक विशेषणसे रहित सामान्य-रूपसे हेतु कहा गया है, तो ऐसा कहनेवाले भी यथार्थवादी नहीं हैं। क्योंकि ) बुद्धि, शब्द और अर्थ तीनोंकी संज्ञाएँ और बुद्धि-आदिसंज्ञा-जनित बुद्धि-आदि-विषयक तीनों बोध भी सर्वत्र स्वव्यतिरिक्त बुद्धयादि विषयके प्रतिबिम्बक होते हैं-उच्चारित-शब्दसे जो ( अव्यभिचरित ) निश्चितबोध होता है वही उसका स्वार्थ है, अन्यथा शब्दके व्यवहारका विलोप ठहरता है। जैसे अर्थपदार्थक जीव-शब्दसे 'जीवको नहीं मारना चाहिये' इस वाक्यमें जीवअर्थका प्रतिबिम्बक बोध उत्पन्न होता है वैसे ही बुद्धिपदार्थक जीव-शब्दसे 'जीव बोधको प्राप्त होता' है इत्यादि बुद्धिस्वरूप जीव-शब्दसे बुद्धि-अर्थका प्रतिबिम्बक बोध होता है और 'जीव' कहा जाता है इस शब्दपदार्थक जीव-शब्दसे शब्दका प्रतिबिम्बक बोध होता है। इस तरह शब्दसे चूँकि तीन प्रकारका बोध उत्पन्न होता है इसलिये बुद्धि आदि तीनों संज्ञाओंमेंसे प्रत्येकके तीन अर्थ जाने जाते है, जिससे संज्ञात्वहेतुमें व्यभिचारदोषके लिये कोई स्थान नहीं रहता।'
संज्ञात्व-हेतुमें विज्ञानादैतवादीकी शंकाका निरसन वक्त-श्रोत-प्रमातृणां बोध-वाक्य-प्रमाः पृथक् । भ्रान्तावेव प्रमाभ्रान्तौ बाह्याऽौँ तादृशेतरौ ॥८६॥
( यदि कोई विज्ञानाद्वैतवादी-योगाचारमतानुयायी बौद्धका पक्ष लेकर यह कहे कि 'आपका संज्ञापना हेतु विज्ञानाद्वैतवादीके प्रति असिद्ध है; क्योंकि संज्ञाका विज्ञानसे पृथक् कोई अस्तित्व