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समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद ७ (यदि यहाँ कोई कहे कि माया ( इन्द्रजाल ) आदि भ्रान्तिकी संज्ञाएँ हैं, जिनका कोई बाह्यार्थ नहीं है अतः संज्ञापना हेतु अनेकान्तिक है—व्यभिचारी है-उससे जीव-शब्दका बाह्यार्थ होना अनिवार्य ( लाज़िमी ) नहीं ठहरेगा तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) मायादि जो भ्रान्तिकी संज्ञाएँ हैं वे भी प्रमाणोक्तिके समान अपने अर्थको साथमें लिये हुए हैं। जिस प्रकार प्रमाण-वचनका ज्ञान-लक्षण बाह्यार्थ है उसी प्रकार मायादि भ्रान्ति-संज्ञाओंका भी बाह्यार्थ भ्रान्ति-विषयक विशिष्ट-प्रतिपत्ति है-भ्रान्ति-संज्ञाओंका भ्रान्तिरूप अर्थका अभाव माननेपर भ्रान्ति-संज्ञासे भ्रान्ति-प्रतिपत्तिका योग नहीं बन सकेगा और उस योगके न बननेसे प्रमाणत्वप्रतिपत्तिका प्रसंग उपस्थित होगा । अर्थात् भ्रान्तिको भी सम्यक्ज्ञान मानना पड़ेगा जो इष्ट तथा अबाधित नहीं। इससे खरविषाण ( गधेके सींग ) खपुष्प ( गगनकुसुम ) आदि शब्दोंका भी स्वार्थरहित होना बाधित हो जाता है । उनका स्वार्थ अभाव है, उसको न मानने पर खर-विषाणादिके भावका प्रसंग उपस्थित होगा। अतः इन खरविषाणादिके साथ भी उक्त संज्ञात्व-हेतुका व्यभिचार नहीं है।
संज्ञात्व-हेतुमें व्यभिचार-दोषका निराकरण बुद्धि-शब्दार्थ-संज्ञास्तास्तिस्रो बुद्धयादिवाचिकाः । तुल्या बुद्धयादिबोधाश्च त्रयस्तत्प्रतिबिम्बकाः ॥ ८५ ॥
'( यदि कोई मीमांसक-मतानुसारी यह कहे कि अर्थ, शब्द और ज्ञान ये तीनों बराबरकी संज्ञाएँ है', जीव-अर्थ जीव-शब्द और जीव-बुद्धि तीनोंकी 'जीव' संज्ञा होनेपर अर्थ-पदार्थक जीव
१. अर्थाऽभिधान-प्रत्ययास्तुल्यनामानः इति ।