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कारिका ८३,८४ ] देवागम
८१ स्वसंवेदन-प्रमाणके द्वारा सब कुछ प्रत्यक्ष होनेपर-और बाह्यप्रमेयकी अपेक्षा-इन्द्रियज्ञानके द्वारा प्रत्यक्ष होनेपर-प्रमाण तथा प्रमाणाभास दोनों बनते हैं -जहाँ विसंवाद होता है अथवा बाधा आती है वहाँ प्रमाणाभास बनता है और जहाँ विसंवाद न होकर निर्बाधता होती है वहाँ प्रमाण बनता है। इस तरह प्रमाणअप्रमाणकी व्यवस्थारूपसे कोई विरोध नहीं आता; क्योंकि एक ही जीवके आवरणके अभावविशेषके कारण सत्य-असत्य-प्रतिभासरूप संवेदन-परिणामकी सिद्धि उसी प्रकार बनती है जिस प्रकार कि किट्ट-कालिमाके अभावविशेषके कारण सुवर्णका उत्कृष्ट-जघन्य परिणाम बनता है।'
यदि कोई कहे कि जीव कोई वस्तु ही नहीं है तो यह कहना नहीं बन सकता; क्योंकि जीवके ग्राहक ( अस्तित्व-सूचक ) प्रमाणका सद्भाव है, उसीको अगली कारिकामें बतलाया जाता है ।
जीव शब्द संज्ञा होनेसे सबाह्यार्थी है जीव-शब्दः सबाह्यार्थः संज्ञात्वाद्धेतु-शब्दवत् । मायादि-भ्रान्ति-संज्ञाश्च मायायैः स्वैः प्रमोक्तिवत् ॥८४॥ ___ 'जीव-शब्द बाह्यार्थ-सहित है-बाह्यमें जीव शब्दका वाच्य अर्थस्वरूप-लक्षण-विशिष्ट जीव-वस्तु है क्योंकि यह शब्द संज्ञा ( नाम ) है, जो शब्द संज्ञा या नामरूप होता है वह बाह्य अर्थके बिना नहीं होता, जैसे हेतु-शब्द-अग्निमान् आदिके अनुमानमें प्रयुक्त हुआ धूम ( धुआँ ) आदि संज्ञात्मक हेतु-शब्द धुओं आदि नामधारी बाह्य-पदार्थके अस्तित्वके बिना नहीं होता, सब ही हेतुवादी हेतु-शब्दको बाह्यार्थ-सहित मानते हैं; अन्यथा हेतु और हेत्वाभासमें कोई भेद नहीं बन सकता।