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समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद ७ बहिरंगार्थता-एकान्तकी सदोषता बहिरङ्गार्थतैकान्ते प्रमाणाभास-निवात् । सर्वेषां कार्यसिद्धिः स्याविरुद्धार्थाऽभिधायिनाम ॥८॥
'यदि बहिरंगार्थताका एकान्त माना जाय-ज्ञानको कोई परमार्थ वस्तु न मानकर वाह्य पदार्थको ही वस्तु माना जायतो इससे प्रमाणाभासका-संशयादिरूप मिथ्या ज्ञानका--लोप होता है; और प्रमाणाभासके लोपसे सभी विरूद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवालोंके कार्य-सिद्धि ठहरेगी-संवेदनाऽद्वैतवादी, ब्रह्माऽद्वैतवादी आदि किसी भी एकान्तवादी अथवा प्रत्यक्षादिके सर्वथा विरुद्ध कथन करनेवालोंको तब मिथ्यादृष्टि या असत्यवादी नहीं कहा जा सकेगा, यह दोष आएगा।'
___ उक्त उभय तथा अवक्तव्य एकोन्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नाऽवाच्यमिति युज्यते ॥ ८२ ॥
'अन्तरंग और बहिरंग ज्ञेयरूप दोनों एकान्तोंका एकात्म्य ( सहाऽभ्युपगम ) स्याद्वाद-न्यायके विद्वेषिथोंके विरुद्ध हैं और इसलिये उनके उभय-एकान्तका सिद्धान्त नहीं बनता। अन्तरंगार्थ और बहिरंगार्थ दोनों एकान्तोंकी अवाच्यताका एकान्त माननेपर 'अवाच्य है' यह उक्ति भी नहीं बनती-अवाच्यतैकान्तके विरुद्ध पड़ती है।'
- उक्त दोनों एकान्तोंमें अपेक्षा-भेदसे सामंजस्य भाव-प्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभास-निवः । बहिःप्रेमायाऽपेक्षायां प्रमाणं नन्निभं च ते ॥३॥ '( हे अर्हन् भगवन् ! ) आपके मतमें भावप्रमेयकी अपेक्षा