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सप्तम परिच्छेद
अन्तरंगार्थता-एकान्तकी बौद्ध-मान्यता सदोष अन्तरंगार्थतैकान्ते बुद्धि-वाक्यं मृपाऽखिलम् । प्रमाणाभासमेवातस्तत् प्रमाणाहते कथम् ॥७६।।
'यदि ( विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धोंके मतानुसार ) अन्तरंगार्थताका एकान्त माना जाय-अन्तरंग जो स्वसंविदित ज्ञान उसीके वस्तुता स्वीकार की जाय और बहिरंग जो प्रतिभासके अयोग्य जड़ है उसके वस्तुता न मानी जाय—तो बुद्धिरूप अनुमान और वाश्यरूप आगम सब मिथ्या ठहरते हैं। जब मिथ्या ठहरते हैं तब वे प्रमाणामास ही हुए;—क्योंकि प्रमाण सत्यसे और प्रमाणाभास मिथ्या( मृषा )से व्याप्त होता है। और प्रमाणाभासका व्यवहार बिना प्रमाणका अस्तित्व अंगीकार किये कैसे बन सकता है ?--नहीं बन सकता। अत: अन्तरंगार्थताके एकान्तकी मान्यता दूषित है। उसे अनुमानादि किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं किया जा सकता; और जब सिद्ध नहीं किया जा सकता तो दूसरोंको उसकी प्रतीति भी नहीं कराई जा सकती।'
( जो ग्राह्य-ग्राहकाकाररूप है वह सब भ्रान्त है, ऐसी संवेदनाद्वैतकी मान्यतासे संवेदनाद्वैत भी भ्रान्त ठहरता है; क्योंकि स्वरूपका ज्ञान भी वेद्य-वेदक-लक्षणाका अभाव होनेपर घटित नहीं होता। सबके भ्रान्त होनेपर साध्य-साधनका ज्ञान भी सम्भव नहीं हो सकता। उसके सत्यरूपमें सम्भव होनेपर सर्वविभ्रमकी सिद्धि नहीं बनती।)