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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ६
हेतु तथा आगमसे निर्दोषसिद्धिकी दृष्टि
वक्तर्याप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतु-साधितम् । आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात्साध्यमागम - साधितम् ॥७८॥
'वक्ताके आप्त न होनेपर जो ( तत्त्व ) हेतुसे साध्य होता है वह हेतु-साधित ( युक्तिसिद्ध ) कहा जाता है और वक्ताके आप्त होनेपर जो तत्त्व उस आप्तके वाक्यसे साध्य होता है उसे आगम- सावित ( शास्त्रसिद्ध ) समझना चाहिये ।'
व्याख्या - यहाँ आप्त और अनाप्तके स्वरूपको मुख्यता से ध्यानमें लेनेकी ज़रूरत है । आप्तका स्वरूप इस ग्रन्थके प्रारम्भको कुछ कारिकाओं में विस्तार के साथ बतलाया जा चुका है, जिसका फलित-रूप इतना ही है कि जो वीतराग तथा सर्वज्ञ होनेसे युक्ति-शास्त्र के अविरोधरूप यथार्थ वस्तुतत्त्वका प्रतिपादक एवं अविसंवादक है वह आप्त है और जो आप्तके इस स्वरूपसे भिन्न अथवा विपरीतरूपको लिये हुए विसंवादक है वह आप्त नहीं - अनाप्त हैं | तत्त्व के प्रतिपादनका नाम अविसंवाद है, जो सम्यग्ज्ञानसे बनता है । जो तत्त्वका - यथार्थ वस्तुतत्त्वकाप्रतिपादन करता है वह अविसंवादक है और इसलिये उसका ज्ञान सम्यक् ज्ञान होना चाहिए, जो कि अबाधित-व्यवसायरूप होता है और जिसके प्रत्यक्ष ( साक्षात् ) तथा परोक्ष ( असाक्षात् ) ऐसे दो भेद हैं । संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीनों अज्ञानोंका नाश इस सम्यग्ज्ञानका फल है । ऐसी स्थिति में उक्तलक्षण-आप्तका वचन सिद्ध होनेपर आगमसिद्ध उसीप्रकारसे प्रमाण होता है जिस प्रकार कि हेतुसिद्ध ।
इति देवागमात-मीमांसायां षष्ठः परिच्छेदः ।