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कारिका ७७]
देवागम नहीं बन पाता । और तब फिर परार्थानुमानरूप शास्त्रोपदेशका भी कोई प्रयोजन नहीं रहता-वह व्यर्थ ठहरता है; क्योंकि अभ्यस्तविषयमें भी यदि प्रत्यक्षसे सिद्धि नहीं मानी जायगी तो फिर शब्द तथा लिङ्ग ( हेतु ) का भी ज्ञान नहीं बन सकेगा; और इस तरह स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान दोनों ही नहीं बन सकेंगे।)
यदि आगमसे ही सर्वतत्त्व-समूहकी सिद्धि मानी जाय तो ये परस्पर विरुद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवाले (युक्ति-निरपेक्ष) मत भी सिद्धिको प्राप्त होंगे—क्योंकि आगममात्रकी दृष्टिसे दोनोंके आगमोंमें कोई विशेष नहीं है और तत्त्वप्ररूपण एकका दूसरेके विरुद्ध है, दोनोंको आगमकी दृष्टिसे सिद्ध अथवा निश्चितरूपसे ठीक माननेपर विरुद्धार्थके भी तत्त्वरूपसे सिद्धिका प्रसंग उपस्थित होगा और तब किसी तत्त्वकी भी कोई यथार्थ व्यवस्था नहीं बन सकेगी और न लोक-व्यवहार ही सुघटित हो सकेगा।'
उक्त उभय तथा अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति र्नाऽवाच्यमिति युज्यते ॥७७॥
‘हेतु और आगम दोनों एकान्तोंका यदि एकात्म्य माना जाय तो वह भी नहीं बन सकेगा; क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध हैसर्वथा विरुद्ध दो सिद्धान्तोंका एकत्र अवस्थान उनके सर्वथा असम्भव है जो स्याद्वाद-न्यायसे द्वष रखते हैं और कथंचित् रूपसे हेतु तथा आगमकी मान्यताको स्वीकार नहीं करते। यदि ( हेतु तथा आगम दोनों एकान्तों-द्वारा तत्त्वसिद्धि में बिरोध-दोष देखकर) अवाच्यताका एकान्त माना जाय तो तत्त्वसिद्धि निश्चयसे 'अवाच्य' है ऐसा कहना भी नहीं बन सकेगा-ऐसा कहनेसे ही वह वाच्य हो जानेके कारण स्ववचन-विरोधका प्रसंग उपस्थित होता है।'