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कारिका ७३ ]
देवागम
नहीं होते अर्थात् अभेद बिना भेदके और भेद बिना अभेद व्यवहृत नहीं बनता है । '
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व्याख्या - ( इस कारिकाके पूर्वार्ध में बौद्धोंकी मान्यता और उसकी सदोषताका, तथा उत्तरार्द्ध में योगोंको मान्यता और उसकी सदोषताका उल्लेख है । बौद्धोंकी यह मान्यता है कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष ज्ञानमें दूर-निकटादिकी तरह धर्म-धर्मी आदि किसीका भी प्रतिभास नहीं होता, तत्पृष्ठ - भावी विकल्प बुद्धिके द्वारा विशेषण-विशेष्यत्व, सामान्य - विशेषणत्व, गुण-गुणित्व, क्रियाक्रियावत्व, कार्य-कारणत्व, साध्य - साधनत्व, ग्राह्य-ग्राहकत्व ये सब भेद उपकल्पित हैं और इसलिये पारमार्थिक न होकर सर्वक्षा आपेक्षिक हैं - वस्तुतः इनमें कोई भी व्यवस्थित नहीं होता । इस तरह की आपेक्षिकी सिद्धि माननेपर नील-स्वलक्षण और नीलज्ञान ये दोनों भी व्यवस्थित नहीं होते; क्योंकि दोनों विशेषण - विशेष्यकी तरह आपेक्षिक हैं । जिनकी सर्वथा आपेक्षिक- सिद्धि होती है उनकी कोई व्यवस्था नहीं है, जैसे परस्पर एक दूसरेको पकड़े हुए नदी में डूबनेवाले दो मनुष्योंकी कोई व्यवस्था नहीं बनती - ( दोनों ही डूबते हैं । ) वैसे ही नील और नील- ज्ञानमें सर्वथा अपेक्षाकृत - सिद्धिकी बात है— नीलज्ञानके विना नील सिद्ध नहीं होता, अज्ञेयत्वका प्रसंग आने से और तथा संवेदननिष्ठ होनेसे, और नीलकी अपेक्षा के विना नीलज्ञान सिद्ध नहीं होता; क्योंकि नीलज्ञानके नीलसे आत्मलाभ बनता है, अन्यथा नीलज्ञानके निर्विषयत्वका प्रसंग आता है और बौद्धोंने ज्ञानको निर्विषय माना नहीं । इस तरह एकके अभाव में दूसरेका भी अभाव होनेसे नील और नीलज्ञान दोनोंका ही अभाव ठहरता