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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ५
है। जब ज्ञान और ज्ञेय दोनों ही न रहे तब सर्व - शून्यताका प्रसंग उपस्थित होता है ।
आपेक्षिक-सिद्धि के एकान्त में दोष देखकर यदि योग - मतवादी यह कहे कि 'धर्म-धर्मीकी सर्वथा आपेक्षिक - सिद्धि नहीं किन्तु अनापेक्षिक - सिद्धि है; क्योंकि धर्म-धर्मीके प्रतिनियत-बुद्धिका विषयपना है, नीलादिके स्वरूपकी तरह । सर्वथा अनापेक्षिकत्वका अभाव होनेपर प्रतिनियत - बुद्धिका विषयपना नहीं बनता, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सर्वथा अनपेक्षा - पक्ष में भी अन्वयव्यतिरेक घटित नहीं होते । अन्वय सामान्यको ओर व्यतिरेक विशेषको कहते हैं, दोनों परस्पर अपेक्षाके रूपमें ही तिष्ठते हैं, दोनोंकी सर्वथा अनापेक्षिक - सिद्धि माननेपर न सामान्य स्थिर रहता है और न विशेष । प्रतिनियतबुद्धि-विषयों में भी प्रतिनियतपदार्थता सापेक्षरूपमें होती हैं, नील- पीतकी तरह । नील और पीतकी अनापेक्षिक - सिद्धि माननेपर यह नील है, यह पीत है ऐसा निश्चय नहीं बनता ।
उक्त उभय तथा अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद - न्याय - विद्विषाम् । श्रवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति पुज्यते ॥७४॥
'यदि आपेक्षिक-सिद्धि और अनापेक्षिक-सिद्धि दोनोंका एकान्त माना जाय तो वह स्याद्वादन्यायसे द्वेष रखनेवालोंकेउस न्यायका आश्रय न लेनेवाले सर्वथा एकान्तवादियोंके - यहाँ नहीं बनता; क्योंकि दोनों एकान्तों में परस्पर विरोध है - उनकी युगपत् विवक्षा सदसत् ( भावाऽभाव ) एकान्तकी तरह नहीं बनती । यदि ( विरोधके भयादिसे ) अवाच्यताका एकान्त