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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद ५ इस तरह द्रव्य और पर्यायमें कथंचित् नानापना ही है, स्वलक्षणके भेदसे; कथंचित् एकपना ही है, अशक्य-विवेचनके कारण; कथंचित् उभयपना ही है, दोनोंकी क्रमार्पित-विवक्षासे; कथंचित् अवक्तव्यपना है, दोनोंके सहार्पणकी दृष्टिसे । शेष तीन भंगोंको भी इसी प्रकारसे घटित कर लेना चाहिये ।
इति देवागमाप्त-मीमांसायां चतुर्थः परिच्छेदः ।
पंचम परिच्छेद
सिद्धि के आपेक्षिक-अनापेक्षिक एकान्तोंकी सदोषता यद्यापेक्षिक-सिद्धिः स्यान द्वयं व्यवतिष्ठते । अनापेक्षिक-सिद्धौ च न सामान्य-विशेषता ॥७३॥
'यदि सिद्धिको-धर्म-धर्मी, कार्य-कारणादिरूप पदार्थोंकी सिद्धि-निश्चितिको-( एकान्ततः ) आपेक्षिकी-सर्वथा एक दुसरेकी अपेक्षा रखनेवाली-माना जाय तो आपेक्ष्य और आपेक्षिक दोनों से किसीकी भी अवस्थिति नहीं बनती-किसी भी एकका निश्चय न होकर दोनोंका अभाव ठहरता है। और सिद्धिको ( सर्वथा ) अनापेक्षिकी-किसीकी भी अपेक्षा न रखनेवाली-माननेपर सामान्य-विशेषभाव नहीं बनता–क्योंकि अन्वय' अथवा अभेदरूप जो सामान्य और व्यतिरेक अथवा भेदरूप जो विशेष दोनों अन्योऽन्याऽपेक्ष हैं-उनकी सिद्धि एक दूसरेकी अपेक्षाको लिये हुए है, पारस्परिक अपेक्षाके बिना व्यवस्थित