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कारिका ६२, ६३ ]
देवागम
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संयोगादि गुण ठहरते हैं और जितने सामान्यवान् अर्थ उतने ही सामान्य होने चाहिये । परन्तु ऐसा नहीं है । अतः एककी अनेकमें सर्वात्मक अथवा सर्वदेश वृत्ति माननेसे, आर्हन्मतसे भिन्न जो सर्वथा एकान्तमत है उसमें दोष आता है । इस तरह एककी अनेकमें प्रवृत्तिका मानना और न मानना दोनों ही सदोष ठहरते हैं । एकदेशरूप और सर्वात्मक वृत्तिसे भिन्न वृत्तिका अन्य कोई प्रकार नहीं है । '
( यदि वैशेषिकमतकी मान्यतानुसार समवाय- सम्बन्धको प्रकारान्तर माना जाय – यह कहा जाय कि समवाय - सम्बन्ध कारण अवयवी आदि अवयवादिकमें वर्तता है, बिना समवायसम्बन्धके वर्तनके अर्थका अभाव है तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि यहाँ भी वही प्रश्न पैदा होता है कि अवयवी आदिकी अवयवादिक में वह समवायवृत्ति एकदेश है अथवा सर्वात्मक ? और दोनों में से किसी भी प्रकारकी समवायवृत्तिको मानने पर वही दोष घटित होता है, जिसे ऊपर बतलाया गया है । ) देश-काल- विशेषेऽपि स्यावृत्तिर्युत-सिद्धवत् । समान- देशता न स्यान्मूर्त कारण- कार्ययोः ॥ ६३ ॥
' ( यदि अवयवादि और अवयवी आदिमें सर्वथा भेद स्वीकार किया जाय तो ) देश और कालकी अपेक्षासे भी उनमें — अवयवादि और अवयवी आदिमें- -भेद मानना पड़ेगा और तब ग्रुत-सिद्धके समान – पृथक्-पृथक् आश्रयमें रहने वाले घट - वृक्षकी तरहउनमें भी वृत्ति ( समवाय - सम्बन्धकी वर्तना ) माननी होगी ।. ( फलतः ) मूर्तिक कारण और कार्यमें जो समान ( अभिन्न ) देशता - एककाल - देशता — देखी जाती है वह नहीं बन सकेगी ।'
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व्याख्या- - अवयवादि और अवयवीआदिमें सर्वथा भेद मानने