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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ४
स्व-अन्य-कारणदेशकी दृष्टिसे देशभेद ही है । लौकिक देशाऽभेदका आकाश - आत्मादिके साथ व्यभिचारदोष घटित होता है; क्योंकि लौकिक देशकी अपेक्षा आकाश और आत्मादिके भिन्न- देशका अभाव होने पर भी उनका तादात्म्य नहीं है ।
उक्त भिन्नतैकान्तमें दोप एकस्याऽनेक वृत्तिर्न भागाभावाद्वहूनि वा । भागित्वाद्वाऽस्य नैकत्वं दोषो वृत्तेरनार्हते ॥ ६२ ॥
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' (यदि वैशेषिकमतानुसार कार्य-कारण, गुण-गुणी और सामान्य-सामान्यवान्को सर्वथा एक दूसरेसे भिन्न माना जाय तो ) एकको - पटादि अवयवीरूप कार्य - द्रव्यादिकी - ( अपने आरम्भक तन्तु आदि) अनेकों में — कारणादिकमें - वृत्ति - प्रवृत्ति नहीं बनती; क्योंकि उस एक विभाग अभावसे निरंशपना माना गया है - जबकि वृत्ति होनी चाहिये; अन्यथा कार्य-कारणभावादिका विरोध उसी तरह घटित होगा जिस तरह अकार्य-कारणरूप तन्तु- घटका और मृत्पिण्ड- पटका कार्य-कारणभाव विरुद्ध होता है । यदि ( अवयवी आदि ) एकको भागित्वरूप आश्रित करके वृत्ति मानी जाय तो इससे एकका एकत्व स्थिर नहीं रहता - वह विभक्त होकर बहुरूपमें परिणत हो जाता है । इसके सिवाय यह प्रश्न पैदा होता है कि एककी अनेक में वह वृत्ति तन्तु आदिके लक्षण आधारके प्रति एकदेशरूपसे होती है या सर्वात्मक रूपसे ? एक देशरूपसे वह नहीं बनती; क्योंकि एक पटादि कार्य द्रव्यके निष्प्रदेश होने से तन्तु आदि अनेक अधिकरणोंमें उसका वर्तना नहीं बनता और प्रत्येकमें सर्वात्मकरूपसे वृत्तिके होने पर एक अवयवी आदिके बहुत्वका प्रसंग उपस्थित होता है— जितने अवयव उतने ही अवयवी ठहरते हैं, जितने संयोगी आदि गुणी उतने ही अनेक अवयवों में स्थित