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समन्तभद्र-भारती परिच्छेद ४ पर उनमें देशभेद और कालभेद भी मानना पड़ेगा और उनका सम्बन्ध युत-सिद्धों जैसा होगा; तब उनमें अभिन्नदेशता कैसे बन सकती है ? यह बात वैशेषिकोंको सोचनेकी है।
यद्यपि आत्मा और आकाशमें अत्यन्त भेद होने पर भी उनमें न देशभेद है और न कालभेद है और इसलिये यह अत्यन्तभेद कार्य-कारणके देश और कालके भेदका नियामक नहीं है, तथापि सत्, द्रव्यत्व आदि रूपसे आत्मा और आकाशमें भी अत्यन्तभेद असिद्ध है। अत एव उनके अभिन्नदेश और अभिन्नकालके होनेमें कोई बाधा नहीं है।
आश्रयाऽऽश्रयि-भावान स्वातन्त्र्यं समवायिनाम् । इत्ययुक्तः स सम्बन्धो न युक्तः समवायिभिः ॥६४॥
'यदि ऐसा कहा जाय कि समवायियोंमें-अवयव-अवयवी ( तन्तु-पट) आदिमें—( समवायके द्वारा ) आश्रयाऽऽश्रयीभाव होनेके कारण स्वतन्त्रता नहीं है, जिससे देश व कालको अपेक्षा भेद होनेपर भी वृत्ति ( समवाय-सम्बन्ध-वर्तना ) बनती, तो यह कहना ठीक नहीं है । ( क्योंकि तब यह प्रश्न उठता है कि वह समवाय समवायिओंमें स्वतः वर्तता-सम्बन्धित होता है या अन्य समवायसे वर्तित-सम्बन्धित होता है । यदि स्वतः सम्बन्धित होता है तो फिर अवयवी भी अपने अवयवोंमें स्वतः सम्बद्ध हो जायगा, उसके लिये एक अलग समवायकी व्यर्थ-कल्पनासे क्या नतीजा ? यदि अन्य समवायसे वह सम्बन्धित होता है तो वह अन्य समवाय भी अन्य तृतीयसे और तृतीय भी अन्य चतुर्थसे सम्बन्धित मानना पड़ेगा और इस तरह अनेक समवायोंकी कल्पना करनेपर एक समवायकी मान्यता बाधित ठहरेगी और अनवस्थादोषका प्रसंग भी उपस्थित होगा।)