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कारिका ६० ]
देवागम रूपमें व्यवस्थित है । अब एक दूसरे दृष्टान्त-द्वारा इस विषयको और स्पष्ट किया जाता है।
वस्तुतत्वकी त्रयात्मकता पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ ६०॥ 'जिसके दुग्ध लेनेका व्रत है—आज मैं दूध ही लूँगा ऐसी प्रतिज्ञा है-वह दही नहीं खाता, जिसके दही लेनेका व्रत है वह दुग्ध नहीं पीता और जिसका गोरस न लेनेका व्रत है वह दूध-दही दोनों ही नहीं खाता। इससे मालूम होता है कि वस्तुतत्त्व त्रयात्मक है—युगपत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप है।' ___ व्याख्या-एक ही वस्तुमें प्रतीतिका नानापन उस वस्तुके विनाश, उत्पाद और स्थिति ( ध्रौव्य ) का साधक जान पड़ता है—जो दूधरूपसे नाशको प्राप्त हो रहा है वही दधिरूपसे उत्पद्यमान और गोरसरूपसे विद्यमान ( ध्रौव्य ) है; क्योंकि दूध और दही दोनों ही गोरसरूप हैं। गोरसकी एकताके होते हुए भी जो दधिरूप है वह दुग्धरूप नहीं; जो दुग्धरूप है वह दधिरूप नहीं; ऐसा व्रतियोंके द्वारा द्रव्य-पर्यायकी विभिन्न प्रतीति-वश भेद किया जाता है । यदि प्रतीतिमें त्रिरूपता न हो तो एकके ग्रहणमें दूसरे का त्याग नहीं बनता।
इस तरह वस्तुतत्त्वके त्रयात्मक साधन-द्वारा उसका प्रस्तुत नित्य-अनित्य और उभय-साधन भी विरोधको प्राप्त नहीं होता; क्योंकि एक ही वस्तुमें स्थिरताके व्यवस्थापन-द्वारा वह कथंचित् नित्य और नाशोत्पादके प्रतिष्ठापन-द्वारा कथंचित् अनित्य सिद्ध होता है और इसलिये यह ठीक कहा जाता है कि संपूर्ण वस्तुसमूह कथंचित् नित्य ही है, कथंचित् अनित्य ही है, कथंचित् उभय