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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद ३ तीनों ही आकाशके पुष्पके समान अवस्तु ठहरें-स्थिति और विनाशके बिना केवल उत्पाद नहीं बनता, नाश और उत्पादके बिना स्थिति नहीं बनती और स्थिति तथा उत्पादके बिना विनाश नहीं बनता। इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि जो सत् है वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसे युक्त है, अन्यथा उसका सत्व ही नहीं बनता, वह आकाशकुसुमके सदृश अवस्तु ठहरता है।'
एक द्रव्यकी नाशोत्पादस्थितिमें भिन्न भावोंकी उत्पत्ति घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥५६॥ ‘( सुवर्ण घटको तोड़कर मुकुटके बनाये जानेपर ) नाश, उत्पाद और स्थितिको जो अवस्थाएँ होती हैं, उनमें यह घटका अर्थीजन शोक ( विषाद ) को, मुकुटका अर्थी हर्षको और सुवर्णका अर्थी शोक तथा हर्षसे रहित मध्यस्थ-भावको प्राप्त होता है और यह सब सहेतुक होता है—घटा के शोकका कारण घटका नाश है, मुकुटा के हर्षका कारण मुकुटका उत्पाद है और सुवर्णा के मध्यस्थ-भावका कारण सुवर्णकी स्थिति है-जो सुवर्ण घटके रूपमें था वही मुकुटके रूपमें विद्यमान है, इससे उसके लिये शोक तथा हर्षका कोई कारण नहीं रहता। बिना हेतुके उन घट-मुकुट-सुवर्णार्थियोंके शोकादिकी उत्पत्ति नहीं बनती।'
(बौद्धोंका जो यह कहना है कि विषादादिके कोई हेतु नहीं होते; किन्तु पूर्वविषादादिके वासनामात्र-निमित्तसे विषादादिक उत्पन्न होते हैं, वह ठीक नहीं; क्योंकि पूर्वविषादादिके वासनामात्र निमित्तके होते हुए भी उन विषादादिके नियमका संभव नहीं। )
इस तरह लौकिक जनोंकी उत्पादादि-विषयक-प्रतीतिके भेदसे यह सिद्ध है कि वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ऐसे तीन