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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद ४ रूप ही है, कथंचित् अवक्तव्य ही है, कथंचित् नित्यावक्तव्य ही है, कथंचित् अनित्यावक्तव्य ही है और कथंचित् उभयावक्तव्य ही है। और इस सप्तभंगीकी व्यवस्थापनप्रक्रियाको उसी प्रकारसे नयप्रमाणकी अपेक्षासे योजित करना चाहिये जिस प्रकार कि वह भावादि तथा एकादि सप्तभंगियोंकी व्यवस्थाके लिये की गई है।
इति देवागमाप्तमीमांसायां तृतीयः परिच्छेदः
चतुर्थ परिच्छेद
कार्य-कारणादिकी सर्वथा भिन्नताका एकान्त कार्य-कारण-नानात्वं गुण-गुण्यन्यतापि च । सामान्य-तद्वदन्यत्वं चैकान्तेन यदीष्यते ॥६॥ 'यदि (वैशेषिकमतावलम्बियोंके मतानुसार) एकान्तसे—सर्वथा रूपमें—कार्य-कारणका भेद माना जाता है, गुण-गुणीको भिन्नता स्वीकार की जाती और सामान्य तथा सामान्यवान् जो द्रव्य-गुणकर्मरूप त्रिक है उसका एक-दूसरेसे अन्यत्व इष्ट किया जाता है ( तो उसमें जो बाधा आती है उसे आगे बतलाया जाता है। )
व्याख्या—यहाँ वैशेषिकमतानुसार 'कार्य' शब्दसे चलनादि क्रियारूप कर्मका, तन्तु आदि अवयवरूप कारणके अवयवीका, संयोगादिरूप अनित्य गुणका और प्रध्वंसाभावका ग्रहण है; 'कारण' शब्द समवायीका, समवायिवान्का ( कर्मवान्का, अनित्यगुणवान्का, पटादि अवयवोंका ) और प्रध्वंसके प्रति कारणका वाचक है; 'गुण' शब्द नित्य-गुणका, 'गुणी' शब्द गुणके आश्रयभूत द्रव्यका,