________________
समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद ३ धर्मोंके सर्वथा अवक्तव्य होनेपर उनकी कोई चर्चा-वार्ता नहीं बन सकती, उन्हें अवक्तव्य कहना भी नहीं बनता, अवक्तव्य कहना भी उन्हें वक्तव्य ठहराता है।' ___'यदि यह कहा जाय कि उक्त वचन संवृतिरूप है—व्यवहारके प्रवर्तनार्थ उपचाररूपको लिये हुए है तो इस संवृतिरूप वचनसे सत्यका प्रतिपादन कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता; क्योंकि संवृति परमार्थके विपरीत-यथार्थताके विरूद्ध—होनेसे स्वयं बौद्धोंके यहाँ मिथ्या मानी गई है। सर्वधर्म जब सर्वथा अवक्तव्य हैं तब वे 'अवक्तव्य हैं' इस वचनके द्वारा भी वक्तव्य नहीं बन सकते और न दूसरोंको उनका तथा उनकी अवक्तव्यताका प्रत्यय ( बोध ) कराया जा सकता है।'
अवाच्यका हेतु अशक्ति, अभाव या अबोध ? अशक्यत्वादवाच्यं किमभावात्किमबोधतः । श्राद्यन्तोक्ति-द्वयं न स्याकिं व्याजेनोच्यतां स्फुटम् ॥५०॥
'यहाँ क्षणिक एकान्तवादी बौद्धोंसे पूछा जाता है कि तुम्हारा यह सर्वथा अवक्तव्य कथन किस हेतुपर अवलम्बित है। क्या अशक्तिके कारण ?-कथन करनेकी सामर्थ्य न होनेसे अवक्तव्य है ?-या अभावके कारण ?-वस्त-धर्मका अस्तित्व न होनेसे अवक्तव्य है ? अथवा अज्ञानके कारण ?-वस्तु धर्मोकी अनभिज्ञता-अजानकारीसे अवक्तव्य है ? (इन तीन कारणोंसे भिन्न अन्य कोई कारण नहीं हो सकता; क्योंकि मौनव्रत, प्रयोजनाभाव, भय और लज्जादिक जैसे कारणोंका, जो कि इन्द्रियताल्वादिकरणव्यापारकी अशक्तिमें निमित्तकारण होते हैं, अशक्तिमें ही अन्तर्भाव है। ) इन तीनोंमें आदि और अन्तके दो कारणोंका ( अशक्ति तथा अज्ञान ) का कथन तो बनता नहीं;