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कारिका ५१ ]
क्योंकि बौद्धोंने महात्मा बुद्धको प्रज्ञापारमिताके रूपमें सर्वज्ञ माना है और उसमें क्षमा, मैत्री, ध्यान, दान, वीर्य, शील, प्रज्ञा, करुणा, उपाय और प्रमोद नामके दस बल अंगीकार किये हैं । ऐसी स्थितिमें उक्त दो कारणों का कथन कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकता । तब तीसरा कारण ही शेष रह जाता है । अतः अक्क्तव्यका बहाना बनानेसे क्या ? स्पष्ट कहिये कि वस्तुतत्त्वका सर्वथा अभाव है — किसी भी वस्तुका कहीं कोई अस्तित्व नहीं है । ऐसा स्पष्ट कहनेसे मायाचारका दोष नहीं रहेगा, जो कि बुद्धके आप्तत्वमें बाधक पड़ता है, और तब इस अवक्तव्यवाद और सर्वथा अभावरूप शून्यवाद में कोई अन्तर नहीं रहेगा ।' क्षणिकैकान्तमें हिंसा - अहिंसादिकी विडम्बना हिनस्त्यनभिसंधातृ न हिनस्त्यभिसंधिमत् । बध्यते तद्वयापेतं चित्तं बद्धं न मुच्यते ॥ ५१ ॥
देवागम
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' ( बौद्धों के क्षण-क्षणमें निरन्वय - विनाशरूप सिद्धान्तके अनुसार ) जो चित्त हिंसाके अभिप्रायसे रहित है वह तो हिंसा करता है, जो हिंसा करनेके अभिप्रायसे युक्त है वह हिंसा नहीं करता, जिसने हिंसाका कोई अभिप्राय अथवा संकल्प नहीं किया और न हिंसा ही की वह चित्त बन्धनको प्राप्त होता है और जो चित्त बन्धनको प्राप्त होता है उसकी मुक्ति नहीं होती - मुक्ति अन्य अबद्ध - चित्तकी होती है; क्योंकि हिंसाका अभिप्राय करनेवाला चित्त वैसा अभिप्राय करनेके क्षणमें ही नष्ट हो जाता है और उत्तरक्षणमें दूसरा चित्त, जिसने हिंसाका कोई इरादा, विचार अथवा संकल्प नहीं किया, उस हिंसा - कार्यको करता है; उस हिंसक चित्तके तत्क्षण नष्ट हो जानेपर तीसरे क्षणमें तीसरा ही चित्त, जिसने न तो हिंसाका कोई संकल्प किया और न हिंसाकार्य