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कारिका ४९]
देवागम अवस्तु कहनेमें कोई विरोध नहीं आता—मुख्य-गौणकी व्यवस्थाविधिसे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप प्रक्रियाके स्वसे पर और परसे स्व-रूपमें बदल जानेसे यह सब सुघटित होता है। इसीसे कोई वस्तु सर्वथा भावरूप नहीं है, स्वरूपकी तरह पररूपसे भी भावका प्रसंग आनेसे; और न सर्वथा अभावरूप ही है, पररूपकी तरह स्वरूपसे भी अभावका प्रसंग उपस्थित होनेसे । वस्तुको सर्वथा भाव या सर्वथा अभावरूप माननेसे वस्तुको कोई व्यवस्था ही नहीं बनती। प्रत्येक वस्तु भावकी तरह अभाव-धर्मको भी साथमें लिये हुए है और वह भी वस्तुकी व्यवस्थाका अंग है। उसे छोड़ देनेपर वस्तु-व्यवस्था बन ही नहीं सकती। इसीलिये स्याद्वादियोंके यहाँ अपेक्षावश कथंचित् भावाऽभावरूपसे वस्तुका प्रतिपादन किया जाता है ।)
सर्व धर्मोके अवक्तव्य होनेपर उनका कथन नहीं बनता सर्वान्ताश्चेद्वक्तव्यास्तेषां किं वचनं पुनः । संवृत्तिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थ-विपर्ययात् ॥४६॥ 'यदि ( क्षणिक एकान्तवादी बौद्धोंके द्वारा ) यह कहा जाय कि 'सर्व धर्म अवक्तव्य हैं'–सर्वथा वचनके अगोचर है-तो फिर उनका धर्म-देशना-रूप तथा स्वपक्षके साधन और पर-पक्षके दूषणरूप वचन कैसा ?--वह किसी तरह भी नहीं बन सकेगा और एकमात्र मौनका ही शरण लेना होगा; क्योंकि 'सर्व धर्म अवक्तव्य है' इस कथनमें स्ववचन-विरोधका दोष उसी तरह सुघटित होता है जिस तरह कि कोई अपने मुखसे दूसरोंको यह प्रतिपादन करे कि 'मैं सदाके लिये मौनव्रती हूँ;' क्योंकि उस समय वह बोल रहा है इसलिये उसका सदाके लिये मौनव्रती होना स्वयं उसके उस वचनसे ही बाधित हो जाता है। सर्व