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[दव्वसंगठ
उपमा कहते हैं। तोयं जह मच्छाणं जैसे पानी मछलियों को सहकारी होता है, परन्तु वह स्थिति करते हुए उन मछलियों को नहीं चलाता है। उसी प्रकार धर्म भी है।
भावार्थ : जिस प्रकार चलती हुई मछलियों के चलने में जल सहकारी होता है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य चलते हुए जीव पुद्गल को चलने में सहकारी होता है। जैसे जल रुकी हुई मछलियों को बलात् नहीं चलाता, उसी प्रकार धर्मद्रव्य रुके हुए जीव और पुद्गल को बलात् नहीं चलाता है ।। 17 ॥ विशेष : "गमण सहयारी" की जगह टीकाकार ने "गड़ सहयारी" यह पाठ स्वीकार किया है ! 17 || [ सम्पादक ]
उत्थानिका : पुद्गलजीवान्नपि स्थितिकारित्वेऽधर्मो भवतीत्याह -
गाथा : ठाणजुयाण अहम्मो पुग्गलजीवाण ठाण सहयारी । छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई ॥ 18 ॥ टीका: ठाण सहयारी स्थिति: सहकारी भवति । कोऽसौ ? अहम्मो अधर्मः केषाम् ? पुग्गलजीवाण पुद्गलजीवानाम्, कथंभूतानाम् ? ठाणजुयाण स्थितिकर्मोदयात् स्थिति कुर्वतम् । अत्राह, यदि तस्य स्थितिकारित्वे तादृशी शक्तिरस्ति तदा गच्छन्तास्तान् किन्न स्थितं कारयति ? अत्रोच्यते-गच्छंता व सो धरई स अधर्मो गच्छन्तान् नैव धरति तान् जीवपुद्गलानां गच्छन्तान् नैव स्थितिं कारयति । कुत: ? धर्मद्रव्योदयात् । अस्यैवार्थस्य समर्थनार्थमुपमानमाह छाया जह पहियाणं यथा छाया पथिकान् स्थिति सहकारित्वे भवति सति तान् पथिकान् गच्छन्तोऽपि न स्थितिं कारयति एवमधर्मः पुद्गलजीवानामपि ।
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