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दव्यसंगह
उत्थानिका : जीव और पुद्गल की स्थिति करने में अधर्म द्रव्य सहायक होता है, ऐसा कहते हैं -
गाथार्थ : [जह ] जैसे [ छाया] छाया [ ठाणजुयाण ] ठहरते हुए [ पहियाणं] पथिकों को [ ठाणसहयारी ] ठहरने में सहायक है [ तह ] वैसे [ पुग्गलजीवाण ] पुद्गल जीवों को [ अहम्मो ] अधर्म है। [सो] वह [ गच्छंता ] चलते हुए को [णेव ] नहीं [धरई ] ठहराता है।। 18॥
टीकार्थ : ठाण सहयारी स्थिति में सहकारी होता है। कौन? अहम्मो अधर्म। किन के? पुग्गलजीवाण पुद्गल और जीवों के। किस प्रकार? ठाणजुयाण स्थिति कर्म के उदय से, स्मिात करते हुए,
शंका : यदि स्थितिकार्य में अधर्मद्रव्य की ऐसी शक्ति है, तब गमन करते हुए जीव-पुद्गल को स्थिति क्यों नहीं कराता?
समाधान : गच्छंता णेव सो धरई वह अधर्म चलते हुए को नहीं रोकता। उन जीव-पुद्गल को गमन करते हुए स्थिति को प्राप्त नहीं कराता। क्यों? धर्म द्रव्य के उदय से।
इसी अर्थ का समर्थन करने के लिए उपमा कहते हैं - छाया जह पहियाणं जैसे छाया पथिक को स्थिति में सहकारी होते हुए भी उन चलते हुए पथिकों की स्थिति नहीं कराती, उसी प्रकार जीव-पुद्गलों को अधर्म द्रव्य भी स्थिति नहीं कराता।
भावार्थ : जिस प्रकार ठहरते हुए पथिक को ठहरने में छाया सहकारी होती है, उसी प्रकार अधर्मद्रव्य रुकते हुए जीव और पुद्गल के रुकने में सहयोगी होता है। जैसे छाया बलात् पथिक को नहीं रोकती, उसी प्रकार अधर्मद्रव्य चलते हुए जीव पुद्गल को बलात् नहीं रुकाता ।। 18 ॥