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दब्धसंगह।।
उस में अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ-मिथ्यात्व-सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति नामक सप्त प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। अशेष रूप से सम्पूर्ण पदार्थों की रुचि यह इस का अर्थ है। उस से जो उत्पन्न होते हैं, दर्शन-ज्ञान के मूल हैं, परमानन्द स्वरूप के सम्वेदक हैं, ऐसे गम परिण ही "यत्पर हैं!
यही अनन्त सुख कहलाता है। युगपत् सम्पूर्ण पदार्थों का जानना, ज्ञान है। युगपत् सम्पूर्ण पदार्थों का अवलोकन दर्शन है।
उक्त अनन्त सुखादि सस गुणों का निरवधिकाल व निरवधि मर्यादा कर के एक समय भी अन्यथाभाव को प्राप्त न होना, वीर्य है।
केवलज्ञानी ही जो अमूर्त सिद्धस्वरूप हैं, उस को (सिद्ध स्वरूप को) जानने में शक्य हैं, अन्य नहीं, यही सूक्ष्मत्व है।
एक सिद्धस्वरूप में असंख्यात सिद्धों का एकत्र एक जगह अवकाश प्राप्त करना, अवगाहन गुण है।
न गुरु है, न लघु है - यही अगुरुलधुत्व है।
असंख्यात सिद्धों का एकत्र रहते हुए परस्पर संघर्षण का अभाव अव्याबाध गुण है। इस प्रकार सिद्ध अष्ट गुणों से समन्वित हैं।
किंचूणा चरमदेहदो चरम देह से किंचित् कम, त्रिभाग से हीन लोयाग्गठिदा लोकाग्रस्थित णिच्चा नित्य, कल्पकाल व्यतीत होने पर भी उन की सिद्धालय से प्रच्युति नहीं होती। तथा उप्पादवएहि संजुत्ता उत्पाद
और व्यय से युक्त हैं। वह उत्पाद-व्यय वचन के अगोचर हैं, सूक्ष्म हैं, प्रतिसमय विनाशी हैं।
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