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[दव्वसंगठ
गाथार्थ : [ पुढवि ] पृथिवी [ जल ] जल [ तेज ] अग्नि [ वाऊ ] वायु [ वणप्फदी ] वनस्पति कायिक [ विचिह ] अनेक [ थावर ] स्थावर [ एइंदी ] एकेन्द्रिय हैं । [ विगतिगचदुपंचक्खा ] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय[ संखादी | शंख आदि [ तसजीवा । त्रसजीव | हाँति ] होत हैं । 11 ||
[ पंचिदिय ] पंचेन्द्रिय [समणा ] सैनी [ अमणा ] असैनी हैं, ऐसा [ णेया ] जानना चाहिये [ परे ] शेष [ सव्वे ] सभी [ णिम्मणा ] असैनी हैं। [ एइंदी ] एकेन्द्रिय [ बायर ] बादर और [ सुहुम ] सूक्ष्म हैं [ सव्वे ] सर्व [ पज्जत्त ] पर्याप्त [य] और [ इदरा ] अपर्यास होते हैं।
टीकार्थं : पुढविजलतेउवाकवणम्फदी पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । विविहथावरेइंदी ये विविध स्थावर एकेन्द्रिय हैं।
इन का क्या स्वरूप है?
अण्डे में वृद्धि पाने वाले प्राणी, गर्भ में वृद्धि पाने वाले प्राणी और मूर्च्छा को प्राप्त मनुष्य जैसे बुद्धिपूर्वक व्यापार से रहित होते हुए भी जीव हैं, वैसे ही एकेन्द्रिय भी जीव हैं।
यहाँ अनुक्त होते हुए भी प्राणों का कथन किया जाता है। उन एकेन्द्रियों के कितने प्राण हैं? स्पर्शनेन्द्रियप्राण, कायबल प्राण, उच्छ्वास- निश्वास प्राण और आयुप्राण ये चार प्राण होते हैं। वे एकेन्द्रिय बादर, सूक्ष्म, पर्यातक और अपर्याप्तक होते हैं। इन का लक्षण कहते हैं।
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वचनगोचर, स्थूल और चिरकाल तक स्थिर रहने वाले बादर होते हैं। वचन के अगोचर, सूक्ष्म और प्रतिक्षण नष्ट होने वाले जीव सूक्ष्म होते
VETLÁŠKAS
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