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दिव्यसंगह
बादर जीव सप्रतिघात होते हैं अर्थात् पर मूर्त द्रव्यों के द्वारा जो बाधित होते हैं, वे जीव बादर हैं। सूक्ष्म जीव प्रतिघात रहित होते हैं अर्थात् अन्य मूर्तिक द्रव्यों के द्वारा बाधा को प्राप्त नहीं होते।
पर्याप्तक और अपर्याप्तक के स्वरूप को कहते हैं। आहार-शरीरइन्द्रिय-श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के परिपूर्ण होने पर गर्भ से निकलना पर्याप्तक का लक्षण है। इन की [छह पर्याप्तियों की] पूर्णता न होते हुए भी गर्भ से निकलना अपर्याप्त का लक्षण है। यहाँ गर्भ शब्द उपलक्षण मात्र है। एकेन्द्रिय में इसे ग्रहण नहीं करना चाहिये। [ये गाथा लिखनी चाहिये।]
उस में एकेन्द्रिय के आहार-शरीर-स्पर्शनेन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास ये चार पर्याप्तियाँ हैं। उन के भाषा व मन सम्बन्धित आवरण होते हैं।
पर्यातक की छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण होती हैं।
विगतिगचदुपंचक्यातसात्रा होति संखादी दो-तीन-चार और पाँच इन्द्रिय त्रस संज्ञा को प्राप्त जीव शंखादि हैं - ऐसा जानना चाहिये। ___उस में शंखादि द्वीन्द्रिय जीव हैं। उन में कितने प्राण हैं? छह हैं। पूर्वोक्त चार [स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु, श्वासोच्छ्वास] तथा रसनेन्द्रिय
और भाषा ये दो। ये जीव पर्याप्तक एवं अपर्यासक होते हैं। पर्यासक जीवों को आहार-शरीर-स्पर्शनेन्द्रिय श्वासोच्छ्वास और भाषा ये पाँच पर्याप्तियाँ हैं, मन पर्याप्ति का अभाव है।
अपर्याप्तक की भाषा के अतिरिक्त उपर्युक्त चार पर्याप्तियाँ होती है।
कुन्थु, खटमलादि त्रीन्द्रिय जीव हैं, इन के सात प्राण होते हैं - पूर्वोक्त छह और घ्राणेन्द्रिय। ये जीव पर्यासक और अपर्याप्तक होते हैं। पर्याप्तकों की पाँच पर्याप्सियाँ होती है, मन नहीं होता। अपर्याप्तकों को पूर्ववत् चार पर्यासियों होती हैं। चतुरिन्द्रिय के आठ प्राण हैं, पूर्वोक्त सात और चक्षुरिन्द्रिय। ये जीव
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