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(३७) नित पीज्यौ धीधारी, जिनवानि सुधासम जानके ॥टेक॥ वीरमुखारविंदत प्रगटी, जन्मजरागद टारी। गौतमादिगुरु-उरघट व्यापी, परम सुरुचि करतारी॥१॥ नित.॥ सलिल समान कलिलमलगंजन बुधमनरंजनहारी। भंजन विभ्रमधूलि प्रभंजन, मिथ्याजलदनिवारी॥२॥नित.।। कल्यानकतरु उपवनधरिनी, तरनी भवजलतारी। बंधविदारन पैनी छैनी, मुक्तिनसैनी सारी॥३॥नित. ।। स्वपरस्वरूप प्रकाशनको यह, भानु कला अविकारी। मुनिमन-कुमुदिनि-मोदन-शशिभा, शम-सुखसुमनसुबारी ॥४॥ नित.॥ जाको सेवत बेवत निजपद, नशत अविद्या सारी। तीनलोकपति पूजत जाको, जान त्रिजगहितकारी॥५॥नित.।। कोटि जीभसौं महिमा जाकी, कहि न सके पविधारी। 'दौल' अल्पमति केम कहै यह, अधम उधारनहारी॥६॥ नित.।।
हे बुद्धिमान, हे बुद्धि के धारक ! जिनवाणी को अमृत-समान जान करके तुम उसका नित्य प्रति आस्वादन करो, उस अमृत का पान करो। ___वह जिनवाणी भगवान महावीर के श्रीमुख से निकली हुई है/खिरी हुई है। वह जन्म, बुढ़ापा व रोग को टालनेवाली, दूर करनेवाली हैं। वह जिनवाणी गौतम आदि मुनिजनों के हृदय में धारण की हुई - समाई हुई है; सर्वोत्कृष्ट है, रुचिकर है और मोक्ष-सुख को प्रदान करनेवाली है । उस अमृत-समान जिनवाणी का नित्य आस्वादन करो।
यह जिनवाणी जल के समान पापरूपी मैल को धोनेवाली, बुधजनों के, विवेकीजनों के चित्त को हरनेवाली है, विभ्रमरूपी धूल का नाश करनेवाली है,
दौलत भजन सौरभ