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(८६) मेरो मन ऐसी खेलत होरी॥टेक॥ मन मिरदंग साज-करि त्यारी, तनको तमूरा बनोरी। सुमत्ति सुरंग सरंगी बजाई, ताल दोउ कर जोरी ।
राग पांचौं पद कोरी॥१॥ मेरो. ॥ समकित रूप नीर भर जारी, करुना केशर घोरी। ज्ञानमई लेकर पिचकारी, दोउ करमाहि सम्होरी।
इन्द्रि पांचौं सखि वोरी॥२॥ मेरो. ।। चतुर दानको है गुलाल सो, भरि भरि मूठि चलोरी । तप मेवाकी भरी निज झोरी, यशको अबीर उडोरी।
रंग जिनधाम मचोरी॥३।। मेरो. ।। 'दौल' बाल खेलें अस होरी, भवभव दुःख टलोरी। शरना ले इक श्रीजनको री, जगमें लाज हो तोरी।
मिलै फगुआ शिवगोरी॥४॥ मेरो.॥
यह मेरा मन, प्रतीकात्मक रूप से इस प्रकार होली खेलता है - यह मनरूपी मृदंग को तैयारकर, देह को तम्बूरा बनाकर तथा सुंदर, सुमतिरूपी सारंगी को बजाकर दोनों हाथ जोड़-जोड़ कर ताल दे रहा है और पंचम स्वर से टीप पर आलाप लगा रहा है । पंचमगति से सुर मिला रहा है, अर्थात् अपने को ऊँचे लक्ष्य से जोड़ रहा है, उस स्थिति के चिंतन में लीन हो रहा है, एक-लय हो रहा है।
समकित/समतारूपी नीर से झारी भरकर, उसमें करुणारूपी केशर घोल दी और अपने दोनों हाथों में ज्ञानमयी पिचकारी सँभालकर पंचेन्द्रिय-सखियों की ओर छोड़ी और उन्हें निशाना बनाया।
करुणा-दानरूपी गुलाल की मुद्री भरकर फेंक रहा है, तप-साधनारूपी मेवा अपनी झोली में डालकर, चारों दिशाओं में अपने सुयश के रंग उड़ा रहा है। जिनेश्वर के धाम में इस प्रकार होली खेली जा रही है।
दौलत भजन सौरभ
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