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अपनी शक्ति/सामर्थ्य का, स्वरूप का ज्ञान न हो सका (३०); जिनको जिनवाणी नहीं सुहाती उनकी दुर्गति होती है (४०); हे भव्य ! जिनेन्द्र के वचन सुनकर इस संसार के द्वन्द्व से क्यों नहीं छूट जाता (९९); गुरु भी समझाते हैं कि हे सज्जन चित्त ! जिनेन्द्र की वाणी को समझो (३६): अमृतरूप वचन का निरन्तर पान करो, श्रद्धाने करो, मनन करो (३६), (३७): हृदय में धारण करो (३०)।
भव्यजन कहते हैं कि मन स्याहादमयी दिव्य ध्वनिरूपी निर्मल जल से विमल होकर समताभावी होने लगा है (३२); श्री जिनेन्द्र के कर्णप्रिय वचन सुनकर अत्यन्त सुख प्राप्त हुआ है (३३) ।
भव्य प्राणी की चाह - गुरु के संबोध से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसके बाद भव्यप्राणी की भावना चाहना बदल जाती हैं। मार्गदृष्टा गुरु के प्रति भी उसकी श्रद्धा व भक्ति जागृत होती है. वह भावना करता है कि ऐसे गुरुवर/मुनिवर मुझे मिलें जो मुझे इस संसार समुद्र से पार लगा दें (४२); क्योंकि अब वह सांसारिक वस्तुएँ इन्द्रिय सुख या भोग-विलास की वस्तुएँ नहीं चाहता बल्कि अब वह चाहता है कि - मेरे अब अन्य कुछ भी चाह नहीं है, बस यही चाह है कि मैं स्वभाव से ही लीन रहूँ, मेरे मोहरूपी ज्वर का शमन हो (१); मैं कर्मशृंखला से छूट सकूँ (४); हमारी राग-द्वेष की भावना नष्ट हो जाय (५); जो पर है अन्य है उसे छोड़कर अपनी आत्मा में ही रमण करूँ; राग द्वेषरूपी अग्नि से बचकर समतारस में भीज जाऊँ, कर्म और कर्मफल में मेरी कभी रुचि न हो, मैं सदैव ज्ञानरूपी अमृत का पान करता रहूँ (७); मैं संसार-सागर से पार होऊँ (६); मुझे आपके समान पद की प्राप्ति हो (१०) (२२) (२४) (२६) (२७) (२८)।
तीर्थकर स्तुति - तीर्थकर के समान पद का आकांक्षी भव्य प्राणी तीर्थंकरों की भक्ति स्तुति करता है, वह जानता है कि उनकी भक्ति मुक्ति का साधन है (२२); आप ही इस दुःख-समुद्र से पार ले जाने हेतु जहाज हो (१); आपकी भक्ति जन्म-मृत्यु रोगरूपी विष को हरनेवाली है, उनका निवारण करनेवालो परम-औषधि है (३)।
तीर्थंकर ऋषभदेव की महिमा गाते हुए कवि कहते हैं - हे सखि! चल, राजा नाभिराय के घर भावी तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म हुआ है, जहाँ इन्द्र भी ऋषभ
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