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दिखानेवाला है (१६); आपके गुण-चिन्तवन से निज के गुणों का भान होता हैं (१६); आपकी पूजा से भाव पवित्र होते हैं जिससे पाप दूर हो जाते हैं (१७); आपकी मुद्रा निराकुल पद को दिखानेवाली है और श्रेष्ठ विरागता को उत्पन्न करनेवाली है, इसलिए हमें भली लगती है (१८): श्री जिनेन्द्र के दर्शन से ज्ञात हुआ कि मैं चेतन हूँ, स्पर्श-रस-गंधयुक्त जड़ नहीं हूँ (१९); अड़ता का नाश होने लगता है (२); परिग्रह-जो कि आकुलता की आग है वह भी नष्ट होता है (१५); आपके दर्शन से सहज ही सब पाप टल जाते हैं, आपके गुणों के चितवन से कर्मरूपी रज/धूलि स्वयं ही झड़ जाती हैं (२८): आपकी छवि के दर्शन करते हो निज-पर की स्पष्ट प्रतीति होती है, भिन्नता दिखाई देती है (३१); आपके समान ज्ञान-वैराग्य और श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति हेतु इन्द्र भी ललचाता रहता है (३१)।
दिव्यध्वनि/जिनवाणी - तीर्थंकर के दर्शन, गुणचिंतन की भाँति ही उनकी दिव्यध्वनि भी कल्याणकारी है। हे देव ! हे जिन! आपकी वाणी-जिनवाणीदिव्यध्वनि स्वव पर का स्वरूप प्रकाशित करानेवाली है (३७); हे देव ! आपकी वाणी भ्रमरूपी अंधकार को दूर करानेवाली है (३०), (३२), (३७); मोहरूपी अंधकार को दूर करानेवाली है (१४); कर्ममल को धोनेवाली है (३०), (३७); मिथ्यात्वरूपी बादलों को दूर करनेवाली है (३७): जिनवाणी तत्व का विचार करने की बुद्धि जागृत करानेवाली है (३४); इसलिए मुझे जिनवाणी में, आपकी बाणी में गहरी श्रद्धा है (१२) (३१); जिनवाणी का संयोग काललब्धि से मिला है (७९); जिनेन्द्र की हितकारी वाणी को सुन (९५); उसको सुनकर अपना हित समझ ले (८३) (१०८), तू जिनवाणी को जान/समझ (३६); तत्व का स्वरूप बतानेवाली जिनवाणी का संयोग दुर्लभ है (९८); जिनवाणी पतितों का उद्धार करनेवाली है (३७); जिनागम की ओर अपनी लगन लगाओ (३५); अमृत सी दिव्य-ध्वनि झर रही है, उससे निज अन्तररूपी आकाश निर्मल दिखाई देने लगा है (१२); दिव्यध्वनि को सुनकर मुनिराजों को निजगुणों का भान होता है (२१), (३७); निरक्षरी ध्वनि को सुनकर भव्यजन इस भवसमुद्र से पार होते हैं ( २५); दिव्यध्वनि रूपी किरण के प्रसार से भव्यजनों के ज्ञानरूपी कमल खिल उठते हैं (९); दिव्यध्वनि उस मेघ के समान है जो पर की चाहरूपी अग्नि को बुझाकर श्रेष्ठ समतारूपी वर्षा की झड़ी बरसाती है (३१) इसको समझे बिना
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