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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
रचना-प्रकृति
जैन आगमों की रचनायें दो प्रकार से हुई हैं२७- १. कृत, २. नियूहित। जिन आगमों का निर्माण स्वतन्त्र रूप से हुआ है वे आगम ‘कृत' कहलाते हैं। जैसे गणधरों द्वारा रचित द्वादशाङ्गी और भिन्न-भिन्न स्थविरों द्वारा निर्मित उपाङ्ग साहित्य ‘कृत आगम हैं। निर्वृहित आगम वे हैं जिनके अर्थ के प्ररूपक तीर्थङ्कर हैं। सूत्र के रचयिता गणधर हैं और संक्षेप में उपलब्ध वर्तमान रूप के रचयिता भी ज्ञात हैं जैसे दशवैकालिक के शय्यम्भव तथा कल्प, व्यवहार और दशाश्रुतस्कन्ध के रचयिता भद्रबाहु हैं। द.नि.२८ से भी यह तथ्य स्पष्ट होता है। पञ्चकल्पचूर्णि से भी इस तथ्य की पुष्टि होती हैतेण भगवता आयारकप्प-दसा-कप्प-ववहारा य नवमपुव्वनीसंदभूता निज्जूढा। रचनाकाल
- सामान्य रूप से आगमों के रचनाकाल की अवधि ई०पू० पाँचवों से ईसा की पाँचवीं शताब्दी के मध्य अर्थात् लगभग एक हजार वर्ष मानी जाती है। इस अवधि में ही छेदसूत्र भी लिखे गये हैं। परम्परागत रूप से छ: छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प
और व्यवहारसूत्र की रचना भद्रबाहु प्रथम द्वारा मानी जाती है। भद्रबाहु का काल ई०पू० ३५७ के आस-पास निश्चित है। अत: इनके द्वारा रचित दशाश्रुत आदि का समय भी वही होना.चाहिए। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ०जैकोबी३० और शुबिंग के अनुसार प्राचीन छेदसूत्रों का समय ई० पूर्व चौथी का अन्त और तीसरी का प्रारम्भ माना जा संकता है। शुबिंग के शब्दों में- "....... theold Cheyasuttas.... Significant are old grammatical forms....,A metrical investigation made by Jacobi, as was said before, resulted in surmising the origin of the most'ancient texts of about the end of the 4th and the beginning of the third century B.C."
तित्योगाली प्रकीर्णक में विभिन्न आगम ग्रन्थों का विच्छेद काल उल्लिखित है। इसके अनुसार वीर निर्वाण संवत् १५०० ई० (सन् ९७३) में दशाश्रुत का विच्छेद हुआ है। विच्छेद का तात्पर्य सम्पूर्ण ग्रन्थ का लोप मानना उचित नहीं होगा। इस सम्बन्ध में प्रो०सागरमल जैन का कथन अत्यन्त प्रासङ्गिक है, "विच्छेद का अर्थ यह नहीं है कि उस ग्रन्थ का सम्पूर्ण लोप हो गया है। मेरी दृष्टि में विच्छेद का तात्पर्य उसके कुछ अंशों का विच्छेद ही मानना होगा। यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में भी जो अङ्ग साहित्य आज अवशिष्ट हैं वे उस रूप में तो नहीं हैं जिस रूप में उनकी विषय-वस्तु का उल्लेख स्थानाङ्ग, समवायाग, नन्दीसूत्र आदि में हुआ है।" तित्थोगाली के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं