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छेदसूत्रागम और दशाश्रुतस्कन्ध के रूप में परिगणित किये जाने की अथवा इसके विलुप्त होने की वास्तविक तिथि बताने की स्थिति में नहीं हैं। परन्तु जैन ग्रन्थावली से ज्ञात होता है कि संवत् १६१२ तक इसकी पाण्डुलिपि उपलब्ध थी।
प्रो०विण्टरनित्ज२५ के अनुसार छ: छेदसूत्रों की संख्या इसप्रकार है- कल्प, व्यवहार, निशीथ, पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति और महानिशीथ। कालिकसूत्र के रूप में उल्लिखित दशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ और महानिशीथ इन पाँच छेदसूत्रों की सूची यह इङ्गित करती है कि आरम्भ में छेदसूत्रों की संख्या पाँच ही थी। छेदसूत्रों की सामान्य विषय-वस्तु
छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्यविषय है, साधक के साधनामय जीवन में उत्पन्न होने वाले दोषों को जानकर उनसे दूर रहना और दोष उत्पन्न होने पर उसका परिमार्जन करना। इस दृष्टि से छेदसूत्रों के विषय को चार विभागों में वर्गीकृत किया गया है१. उत्सर्ग मार्ग, २. अपवाद मार्ग, ३. दोष-सेवन, ४. और प्रायश्चित्त विधान।
प्रथम, साधु समाचारी के ऐसे नियम जिन्हें बिना किसी हीनाधिक के या परिवर्तन के, प्रामाणिकता से पालन करना श्रमण के लिए अनिवार्य है उन्हें उत्सर्ग मार्ग कहा जाता है। निर्दोष चारित्र की आराधना इस मार्ग की विशेषता है।
द्वितीय, अपवाद मार्ग से यहाँ अभिप्राय है, विशेष विधि। यह दो प्रकार की होती है-निर्दोष विशेष विधि और सदोष विशेष विधि। आपवादिक विधि सकारण होती है। जिस क्रिया या प्रवृत्ति से आज्ञा का अतिक्रमण में होता हो, वह निर्दोष है। परन्तु प्रबलता के कारण मन न होते हुए भी विवश होकर दोष का सेवन करना पड़े या किया जाये, वह सदोष अपवाद है। प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि हो जाती है।
ततीय, दोष-सेवन का अर्थ है- उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का उल्लङ्घन। चतुर्थ, प्रायश्चित्त का अर्थ है- दोष-सेवन के शुद्धिकरण के लिए की जाने वाली विधि।
दशाश्रुतस्कन्य : परिचय कालिक अन्य
नन्दीसत्र में पहले जैन आगम साहित्य को अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य में वर्गीकृत किया गया है। पुनः अङ्गबाह्य आगम को आवश्यक, आवश्यकव्यतिरिक्त, कालिक
और उत्कालिक रूप में वर्गीकृत किया गया है। ३१ कालिक ग्रन्थों में उत्तराध्ययन के पश्चात् दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार, निशीथ और महानिशीथ इन छेदसूत्रों का उल्लेख है। कालिक ग्रन्थों का स्वाध्याय क्किाल को छोड़कर किया जाता था।