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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
पाएण एरिसो सिज्झइति कोइ पुणा आगमेस्साए । केण हु दोसेण पुणो पावइ समणो वि आयाई ॥१३४॥ जाणि भणिआणि सुत्ते तहागएसुंतहा निदाणाणि । संदाण निदाणं नियपच्चोति य होंति एगट्ठा ॥१३५॥ दव्वप्पओगवीससप्पओगसमूलउत्तरे चेव । मूलसरीरसरीरी साती अमणादिओ चेव ॥१३६॥ णिगलादि उत्तरो वीससाउ साई अणादिओ चेव ।
खेत्तम्मि जम्मि खेते काले कालो जहिं जो उ ॥१३७॥ प्रायेण ईदृशः सिध्यति इति कश्चित् पुनरागमिष्यति । केन खलु दोषेण पुनः प्राप्नोति श्रमणोऽपि आयातिम् ॥१३४॥ यानि भणितानि सूत्रे तथागतेषु तथा निदानानि । संदानं निदानं निजप्रत्यय इति च भवन्ति एकार्थाः ॥१३५॥ द्रव्यप्रयोगवित्रसप्रयोगसमूलउत्तराणि चैव । मूलशरीराशरीरी सादिरमनस्कादिश्चैव ॥१३६॥ नूपुरादि उत्तरो विस्त्रसा तु सादिः अनादिकश्चैव । क्षेत्रे यस्मिन् क्षेत्रे काले यस्मिन् कालः यस्तु ॥१३७॥
प्राय: (ऊपर वर्णित) इस प्रकार के साधु सिद्धि पाते हैं कोई पुनः संसार-ग्रहण भी करते हैं। पुन: किस दोष से श्रमण उत्पत्ति पाते हैं?।।१३४।।
सूत्र (दशाश्रतस्कन्ध छेदसूत्र) में तथागतों (तीर्थङ्करों) द्वारा कथित निदान हैं (उनको करने वाला पुनः आता है), सन्दान (अवलम्बन लेने वाला) निदान और आत्म-निश्चय ये एकार्थक हैं।।१३५।।
द्रव्यबन्ध (दो प्रकार का प्रयोग बन्ध और विस्रसा बन्ध, प्रयोग बन्ध मूल और उत्तर बन्ध (दो प्रकार)। मूल बन्ध भी दो प्रकार का होता है- शारीरिक और अशारीरिक-मनादि से अन्य।।१३६।। ___णिगल-नूपुर या वेणी आदि उत्तर बन्ध हैं, विलसा बन्ध (दो प्रकार का होता है)- सादिक विस्रसाबन्ध और अनादिक विस्रसाबन्ध। क्षेत्र की दृष्टि से बन्ध का अर्थ है जिस क्षेत्र में और काल की दृष्टि से अर्थ है जिस काल में बन्ध हो।।१३७।।