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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद दुविहो अभावबंधो जीवमजीवे अहोइ बोधव्यो । एक्केक्कोवि तिविहो विवागअविवागतदुभयगो ॥१३८॥ भावे कसायबंधो अहिगारो बहुविहेसु अत्थेसु । इहलोगपारलोगिय पगयं परलोगिए बन्धे ॥१३९॥ पावइ धुवमायाति निआणदोसेणु उज्जमंतोवि। . विणिवायंपि य पावइ तम्हा अनियाणता सेआ ॥१४०॥ अपासत्थाए अकुसीलयाए अकसायअप्पमाए य । अणिदाणयाइ साहू संसारमहन्नवं तरई ॥१४१॥
॥निज्जुत्ती सम्मत्ता।।। द्विविधश्च भावबन्धो जीवाजीवौ च भवति बोधव्यः । एकैकमपि त्रिविधो विपाकाविपाकतदुभयात्मकः ॥१३८॥ भावे कषायबन्धोऽधिकारो बहुविधेषु अर्थेषु । इहलोकपारलौकिकं प्रकृतं पारलौकिके बन्धे ॥१३९॥ प्राप्नोति ध्रुवमायातिः निदानदोषेण उद्यमवानपि । विनिपातमपि च प्राप्नोति तस्मादनिदानता श्रेयसी ॥१४०॥ अपार्थस्थत्वेन अकुशीलत्वेन अकषायप्रमादाच्च ।
अनिदानकादिभिः साधः संसारमहार्णवं तरति ॥१४१॥ ___भाव-बन्ध दो प्रकार का होता है- जीव भावबन्ध और अजीव भावबन्ध, यह जानना चाहिए। प्रत्येक तीन-तीन प्रकार का होता है— विपाक से बन्ध, अविपाक से बन्ध और तदुभय अर्थात् विपाकाविपाक से बन्ध।।१३८।।
भाव (निदान) में कषाय बन्ध अधिकार (प्रस्ताव) अनेक विधियों और अर्थों में होता है। यह इहलौकिक और पारलौकिक होता है। प्रस्तुत अध्ययन में पारलौकिक बन्ध का कथन है।।१३९।।
निदान-दोष के कारण (मोक्षमार्ग में) प्रयत्नशील भी श्रमण निश्चित् रूप से उत्पत्ति या जन्म प्राप्त करता है, और अध:पतन या विनाश प्राप्त करता है इस कारण निदान न करना श्रेयस्कर है।।१४०।। ___ अशिथिलाचारी, शीलवान्, कषायरहित, अप्रमत्त और निदान न करने वाला साधु संसार रूपी महासागर को पार करता है।।१४१।।
।।नियुक्ति समाप्त।।