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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद जत्तो चुओ भवाओ तत्थे य पुणोवि जह हवति जम्म। सा खलु पच्चायायी मणुस्स तेरिच्छए होइ॥१३०॥ कामं असंजयस्सा णत्थि हु मोक्खे धुवमेव आयाई। केण विसेसेण पुणो पावइ समणो अणायाई॥१३१॥ मूलगुणउत्तरगुणे अप्पडिसेवी इहं अपडिबद्धो। भत्तोवहिसयणासणविवित्तसेवी सया पयओ ॥१३२॥ तीत्थंकरगुरुसाहूसु भत्तिमं हत्थपायसंलीणो। पंचसमिओकलहझंझपिसुणओहाणविरओअपाएण॥१३३॥ यतश्च्युतो भवात् ततश्च पुनरपि यथा भवति जन्म । सा खलु प्रत्याजातिः मनुष्यतिरश्चोः भवति ॥१३०॥ काममसंयतस्य नास्ति खलु मोक्षः ध्रुवमेव आयाति । केन विशेषेण पुनः प्राप्नोति श्रमणो अनायातिः ॥१३१॥ मूलगुणोत्तरगुणयोरप्रतिसेवी इह अप्रतिबद्धः । भक्तोपधिशयनासनविविक्तसेवी सदा प्रयततः ॥१३२॥ तीर्थङ्करगुरुसाधुषु भक्तिमान् हस्तपादसंल्लीनः । पञ्चसमितः कलहविवादपिशुनावधानविरतश्च प्रायेण ॥१३३॥ जिस भव से च्युत हुआ है उसी भव में जब पुनर्जन्म होता है वह प्रत्याजाति है, यह मनुष्य और तिर्यञ्च की होती है।।१३०।।
विषयाभिलाषी और असंयत को मोक्ष नहीं होता है। इनकी निश्चित रूप से आयाति अर्थात् उत्पत्ति है। पुन: किस विशेषण से श्रमण अनायाति अर्थात् संसार-भ्रमण से मुक्ति पाता है।।१३१।।
जो मूलगुण और उत्तरगुणों को दूषित नहीं करता है, इह लोक अर्थात् संसार में आसक्तिरहित होकर रहता है, जो भक्त-उपधि और शय्यासन में (सदा शुद्धता) और एकान्त का सेवन करता है एवं सदा अप्रमत्त रहता है, वह श्रमण मोक्षपद पाता है।।१३२।। ___ तीर्थङ्करों, गुरुओं और साधुओं में भक्तियुक्त, हस्त-पाद अर्थात् इन्द्रियों को वश में करने वाला, पञ्चसमितियों वाला, कलह, झगड़ा लगाना और परनिन्दा के चिन्तन से विरत (श्रमण) प्राय: (सिद्ध होता है)।।१३३।।