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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद असुत्ते दुहाणुबंधं दुम्मोए खलु चिरहितीए य। घणचिक्कणनिव्वे आमोहे य तहा महामोहे ॥१२४॥ कहिया जिणेहिं लोगो पगासिया भारिया इमे बंधा। साहुगुरुमित्तबंधवसेट्ठीसेणावइवधेसु य॥१२५॥ एत्तो गुरुआसायणजिणवयण विलोवणेसु पडिबंध। असुहे दुहाण बंधत्ति तेण तो ताई वज्जेज्जा ॥१२६॥
।।मोहणिज्जस्स निज्जुत्ती समत्ता।।९।।
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असूक्तं दुःखानुबन्धः दुर्मोकः खलु चिरस्थितेश्च । घनचिक्कणनीव्रः आमोहश्च तथा महामोहः ॥१२४॥ कथिताः जिनैः लोके प्रकाशिताः भारिता: इमे बन्धाः । साधुगुरुमित्रबान्धवश्रेष्ठिसेनापतिवधेषु च ॥१२५॥ एतस्मात् गुर्वाशातनजिनवचनविलोपनेषु प्रतिबन्धः । अशुभो दुःखानां बध्नाति तेन तु तानि वर्जयेत् ॥१२६॥
दुःखानुबन्ध (दुःख बन्धन या दुःखविपाक), दुर्मोक (दुःख से छुड़ाने योग्य), चिरस्थितिक (दीर्घकालीन स्थिति वाला), घन (सान्द्र) चिक्कण (स्निग्ध, दुःख से छुड़ाने योग्य) नीव्र (पटल प्रान्त), आमोह तथा महामोह- ये कर्म के एकार्थक हैं।।१२२-१२४।।
तीर्थङ्करों द्वारा लोक में प्रकट किया गया कि साधु, गुरु, मित्र, बान्धव, श्रेष्ठी और . सेनापति का वध गुरुवध या महावध है।।१२५।।
गुरु की आशातना (अर्थात् अवज्ञा) और जिन वचनों के विलोपन का परित्याग करना चाहिए क्योंकि इनसे अन्तराय होता है और अशुभ (कर्मों) और दुखों का बन्ध होता है।।१२६।।