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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
दव्वे सच्चित्ताती सयणधणादी दुहा हवइ मोहो । ओघेणेगापयडी अणेगपयडी भवे मोहो ॥१२०॥ अट्ठविहंपि य कम्मं भणिअंमोहोत्ति जं समासेणं । सो पुव्वगए भणिओ तस्स य एगट्ठिआ इणमो ॥१२१॥ पावे वज्जे वेरे पणगे पंके खुहे असाए य। संगे सल्ले अरए निरए धुत्ते अ एगट्ठा ॥१२२॥ कम्मे य किलेसे य समुदाणे खलु तहा मइल्ले य । माइणो अप्पाए अ दुप्पक्खे तह संपराये य ॥१२३॥
द्रव्ये सचित्तादयः सदनधनादयः द्विधा भवति मोहः। ओघेनैकप्रकृतिः अनेकप्रकृतिश्च भवे मोहः ॥१२०॥ अष्टविधमपि च कर्म भणितं मोह इति यत्समासेन । स पूर्वगतो भणितः तस्य च एकार्थका एते ॥१२१॥ पापमवद्यं वैरं शैवालं पङ्कः क्षोभः असातञ्च । सङ्गः शल्यमरतः निरयः धूर्तश्च एकार्थकाः ॥१२२॥ कर्म च क्लेशश्च समुदानं तथा मलिनता च । मायिनः आत्मनश्च दुष्पक्षः तथा संपरायश्च ॥१२३॥
__ द्रव्य मोह सचित्तादि (धातु, गो, अनादि) और (अचित्त) गृह, धनादि दो प्रकार का होता है। भाव मोह (सङ्घात या सामान्य और विभाग से दो प्रकार का होता है) सङ्घात दृष्टि से एक प्रकृति और (विभाग दृष्टि से) अनेक प्रकृति होता है।।१२०।।
जो अष्टविध कर्म है वह संक्षेप में मोह कहा गया है, वह (अष्टविध कर्म प्रवाद) पूर्व में कहा जा चुका है उसके एकार्थक ये हैं।।१२१।।
पाप, अवद्य, वैर, पनक (पङ्क), क्षोभ, असाता (दुःख-पीड़ा), सङ्ग (आसक्ति), शल्य, अरति, निरति और धूर्त एकार्थक हैं। कर्म क्लेश (दुःख या दुःख का कारण-कर्म), समुदान (प्रयोग गृहीत कर्मों को प्रकृति-स्थित्यादि रूप से व्यवस्थित करने वाली क्रिया), दुष्पक्ष (दुष्टपक्ष), सम्पराय (स्थूल कषाय), असूक्त (निन्दित),