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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद १८३ महुरा मंगू आगम बहुसुय वेरग्ग सडपूयाय । सातादिलोभ णितिए, मरणे जीहा य णिद्धमणे ॥११०॥ अब्भुवगत गतवेरे, णाउ गिहिणो वि मा हु अहिगरणं। कुज्जा हु कसाए वा अविगडितफलं च सिं सोउं ॥१११॥ पच्छित्ते बहुपाणो कालो बलितो चिरंतु ठायव्वं । सज्झाय संजमतवे धणियं अप्पा णिओतव्वो ॥११२॥
मथुरा मङ्गः आगमबहुश्रुतः वैराग्यं श्राद्धपूजायै। सातादिलोभः नीत्या, मरणे जिह्वा च निाने ॥११०॥ अभ्युपगतः गतवैरः, ज्ञातुं गृही अपि मा खलु अधिकरणम्। कुर्यात् खलु कषाये वा अविगणितफलं चसंश्रोतुम् ॥१११॥ प्रायश्चित्तो बहुप्राणः कालः बलितः चिरंतु स्थातव्यम्। स्वाध्यायसंयमतपांसि घनितम् आत्मा नियोजयितव्यम्॥११२॥
आर्यमङ्ग (विहार करते हुए) मथुरा गये, आगम बहुश्रुत एवं वैराग्ययुक्त होने से लोग श्रद्धा से पूजा करते थे, सातादि लोभ के कारण (वे विहार नहीं करते थे), नियमत: (शेष साधु विहार किये), श्रमणाचार की विराधना के कारण वे मरकर (व्यन्तर हुए, साधुओं के उस प्रदेश से निर्गमन करने पर यक्ष प्रतिमा में प्रविष्ट होकर) जिह्वादि निकालकर (अपने यक्ष होने का वृत्तान्त बताकर लोभ कषाय न करने का उपदेश देते थे)।।११०।।
कषाय-दोषों को जानकर, वैर त्यागकर, गृहस्थों के प्रति भी अधिकरण नहीं करना चाहिए अथवा कषायों के परिणाम का विचार किये बिना कषाय भी नहीं करना चाहिए।।१११।। ___ (ऋतुबद्धकाल के आठ महीनों में प्रायश्चित्त न कर पाने के कारण सञ्चित) प्रायश्चित्त के लिए, वर्षा ऋतु में पृथ्वी के बहुप्राणों वाली होने के कारण तथा प्रायश्चित्त ग्रहण करने की दृष्टि से अनुकूल काल होने के कारण, (एक स्थान पर) दीर्घकाल तक वास करना चाहिए। आत्मा को सद्ध्यान, संयम और तप में भलीभाँति योजित करना चाहिए।।११२।।