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१८२ दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
सयगुणसहस्स पागं, वणभेसज्जं वतीसु जायणता। तिक्खुत्त दासीभिंदण ण य कोव सयं पदाणं च॥१०७॥ पासत्थि पंडरज्जा परिण्ण गुरुमूल णाय अभिओगा। पुच्छति य पडिक्कमणे, पुव्वब्भासा चउत्थम्मि॥१०८॥ अपडिक्कम सोहम्मे अभिओगो देवि सक्कतोसरणं। हत्थिणि वायणिसग्गो गोतमपुच्छा य वागरणं॥१०९॥
शतगुणसहस्रपाकं व्रणभैषज्यं यतये याचना। त्रिः दासिभेदनं न च कोपः स्वयं प्रदानं च ॥१०७॥ पार्श्वस्था पाण्डुरार्या परिज्ञाय गुरुमूलं ज्ञाताभियोगा। पृच्छति च प्रतिक्रमणे पूर्वाभ्यासा चतुर्थ्याम् ॥१०८॥ अप्रतिक्रमः सौधर्मे अभियोगा देवी शक्रावसरणम्। हस्तिनी वातनिसर्गो गौतमपृच्छा च व्याकरणम् ॥१०९॥
सैकड़ों प्रकार के भैषज तेल थे, साधु द्वारा माँगे जाने पर (दासी को आदेश), दासी द्वारा तीन बार पात्र तोड़ देने पर भी उसका कुपित न होना, बल्कि स्वयं प्रदान करना।।१०४-१०७।।
शिथिलाचारिणी पाण्डुरार्या (सदा श्वेतवस्त्रधारिणी होने से प्रदत्त नाम) को उसके माँगने पर गुरु द्वारा भक्त प्रत्याख्यान दिया गया। (विद्यामन्त्र के बल से पाण्डुरार्या के आह्वान करने से लोगों के आने पर) गुरु द्वारा प्रतिक्रमण के समय तीन बार कारण पूछने. पर आह्वान की बात स्वीकार करती है, परन्तु चौथी बार पूछने पर कहती है कि पहले के अभ्यास के कारण आते हैं। प्रतिक्रमण न करने के कारण समय आने पर पाण्डुरार्या सौधर्मकल्प में ऐरावत की अग्रमहिषी हुई। समवसरण में भगवान् के आगे स्थित होकर उसके उच्च स्वर करने पर, गौतम द्वारा पूछने, पर (भगवान् महावीर द्वारा इस कथा का) व्याख्यान किया जाता है।।१०८-१०९।।