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१८४ दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
पुरिमचरिमाण कप्पो मंगल्लं वद्धमाणतित्थंमि। इह परिकहिया जिण-गणहराइथेरावलि चरित्तं ॥११३॥ सुत्ते जहा निबद्धं वग्धारिय भत्त-पाण अग्गहणे । णाणट्ठी तवस्सी अणहियासि वग्धारिए गहणं ॥११४॥ संजमखेत्तचुयाणं णाणट्ठि-तवस्सि-अणहियासाणं। आसज्ज भिक्खकालं, उत्तरकरणेण जतियव्वं ॥११५॥ उण्णियवासाकप्पो लाउयपायं च लब्भए जत्थ । सज्झाएसणसोही वरिसति काले य तं खित्तं ॥११६॥ पूर्वचरमयोः कल्पः माङ्गल्यं वर्धमानतीर्थे । इह परिकथिता जिनगणधरास्थविरावलिः चारित्रम् ॥११३॥ सूत्रे यथानिबद्धं प्रलम्बितभक्तपानऽग्रहणे । ज्ञानार्थी तपस्वी अनध्यासी प्रलम्बिते ग्रहणंम् ॥११४॥ संयमक्षेत्रच्युतानांज्ञानार्थि-तपस्वि-अनध्यासिनाम् । आसाद्य भिक्षाकालं उत्तरकरणेन यतितव्यम् ॥११५॥ और्णिकं वर्षाकल्पं अलाबूपात्रं च लभ्यते यत्र । स्वाध्यायैषणशुद्धिः वर्षति काले च तत् क्षेत्रम् ॥११६॥
प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के समय में कल्प अर्थात् वर्षावास अवश्य होता है, (मध्य के तीर्थङ्करों के समय वर्षावास विकल्प से होता है), कल्याण के लिए वर्धमान तीर्थ में जिनों का चरित्र और गणधरों की स्थविरावली वर्णित है।।११३।।।
जिस प्रकार कल्पसूत्र में अनवरत वर्षा होने पर भक्त-पान का अग्रहण वर्णित है, ज्ञानार्थी, तपस्वी और (भूख सहन करने में) असमर्थ को (अनवरत वर्षा में) भिक्षा ग्रहण का कथन है।।११४।।
संयम क्षेत्र का त्याग किये हुए, ज्ञानार्थी, तपस्वी और (भूख को) सहन न कर सकने वाले साधु को (निरन्तर वर्षा होते रहने पर) भिक्षाकाल आने पर हाथ से ढककर भिक्षा माँगनी चाहिए।।११५।।
जहाँ वर्षावास के योग्य ऊनी वस्त्र, तुम्बीपात्र प्राप्त होता है, स्वाध्याय एषणा शुद्ध होती है और समय से वर्षा होती है. वह संयम क्षेत्र होता है।।११६।।