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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद पसत्थ विगईगहणं गरहियविगतिग्गहो य कज्जम्मि। गरहा लाभपमाणे पच्चय पायप्पडीघाओ॥२॥ कारणओ उडुगहिते उज्झिऊण गेण्हंति अण्णपरिसाडी। दाउं गुरुस्स तिण्णि उ सेसा गेण्हंति एक्केक्कं ॥८३॥ उच्चार-पासवण-खेलमत्तए तिण्णि तिहि गेण्हंति। संजय-आएसट्ठा भुंजेज्जऽवसेस उज्झंति॥४४॥
प्रशस्तविकृतिग्रहणं गर्हितविकृतिग्रहश्च कार्ये । गर्दा लाभप्रमाणे प्रत्ययः पापप्रतिघातः ॥४२॥ कारणतः ऋतुगृहीते उज्झित्वा गृह्णन्ति अन्यपरिशाटीः। दातुं गुरोः तिस्रः शेषाः गृह्णन्ति एकैकम् ॥८३॥ उच्चारप्रस्रवणश्लेष्ममात्रक: त्रीणि त्रीणि गृह्णन्ति। संयतादिष्टाः भुञ्जीरन् अवशेषमुज्झन्ति ॥४४॥
है उसे विकार स्वभाव वाली विकृति बलपूर्वक विकृति (असंयम या दुर्गति) की ओर ले जाती है। __ प्रशस्तविकृति ग्रहण और अप्रशस्त विकृति ग्रहण, कार्य या प्रयोजन वश करना चाहिए। अप्रशस्त विकृति के ग्रहण की मात्रा का निश्चय (जितने प्रमाण में बाल, वृद्ध या ग्लान के लिए आवश्यक हो) उससे करना चाहिए। कारणपूर्ण होने पर अप्रशस्त पाप की आलोचना करनी चाहिए।।८२।।
कारणवश ऋतुकाल (शीत एवं ग्रीष्म काल) में ग्रहण किये गये संस्तारक को त्यागकर अन्य को ग्रहण करते हैं, दूसरे साधुओं को प्रदान करने के लिए गुरु तीन धारण करते हैं जबकि शेष एक-एक ग्रहण करते हैं।।८३।।
प्रत्येक साधु मलोत्सर्ग, मूत्रोत्सर्ग और श्लेष्म के निमित्त तीन-तीन पात्र ग्रहण करते हैं। साधु (आचार्य की) आज्ञा होने पर (आहार) ग्रहण करें, (वे) बचे हुए आहार का त्याग करते हैं।।८४।।