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दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति : एक अध्ययन
धुवलोओ उ जिणाणं णिच्चं थेराण वासवासासु। असहू गिलाणस्स व, णातिक्कामेज्ज तं रयणि ॥८५॥ मोत्तु पुराण-भावियसड्ढे संविग्ग सेस पडिसेहो। मा निहओ भविस्सइ भोयणमोए य उड्डाहो ॥८६॥ इरिएसण भासाणं मण वयसा काइए य दुच्चिरिए। अहिगरणकसायाणं संवच्छरिए विओसवणं॥८७॥ कामं तु सव्वकालं पंचसु समितीसु होइ जइयव्वं । वासासु अहीगारो वहुपाणा मेइणी जेणं ॥८॥
ध्रुवलोचस्तु जिनानां नित्यं स्थविराणां वर्षावासेषु । असहग्लानस्य च, नातिक्रामयेत् तां रजनीम् ॥८५॥ मुक्त्वा पुराणभावितश्रद्धौ संविग्नं शेषप्रतिषेधः । मा निर्दयो भविष्यति भोजनमोचश्च उद्दाहः ॥८६॥ ईर्यंषणा भाषाणां मनसा वाचा कायेन च दुश्चरिते । अधिकरणकषायाणां सांवत्सरिके व्यवशमनम् ॥८७॥ कामंतु सर्वकालं पञ्चसु समितिषु भवति यतितव्यम्। वर्षासु अधिकारः बहुप्राणा मेदिनी येन ॥८॥
___ वर्षावास में जिनकल्पी साधुओं को नियमित लोच करना चाहिए, स्थविर- कल्पियों को चातुर्मास में एक बार लोच करना चाहिए। असमर्थ एवं ग्लान के लोच के लिए पर्युषणा की अन्तिम रात्रि का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।।८५।।
पुराने शिष्य(जिसको पूर्व में दीक्षा दी जा चुकी हो), श्रद्धायुक्त अन्त:करण वाले श्रावक एवं मुमुक्षु को छोड़कर अन्य को चातुर्मास में (दीक्षा देने का) निषेध है। (वर्षाकाल में दीक्षा से)वहनिर्दयनहोजायतथा भोजनत्यागसेश्रमणधर्म के प्रतिदुःखाग्निन दीप्त हो।।८६।।
ईर्या, एषणा, भाषा (आदान-निक्षेप, परिस्थापना इन पाँच समितियों) का मन, वचन और शरीर से पालन करना चाहिए। कुत्सित आचरण, पापकर्म और कषायों को संवत्सरी में उपशान्त करना चाहिए।।८७।।
सभी श्रमणों को पाँच समितियों का सर्वदा यत्नपूर्वक आचरण करना चाहिए, पृथ्वी वर्षाऋतु में बहुत प्राणों की सत्ता वाली हो जाती है (इसलिए वर्षाऋतु में श्रमण को अत्यधिक यत्नपूर्वक संयम-पालन करना चाहिए)।।८८।।